भारत संसार में विश्व गुरु रहा है, यदि भारत को विश्व गुरु माना जाता है तो शिक्षा और संस्कार के महत्व पर ही माना जाता है। भारत वह देश है जिसने संसार को सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान दिया, यह केवल भारतीय होने के नाते ही नहीं कहा गया, अपितु भारतीय शिक्षा संस्कृति और भारतीय धर्म ग्रंथों में इस बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। जो रचनाएं भारत के द्वारा विश्व को दी गई। वे रचनाएं संसार में कहीं नहीं मिलेगी। यदि रचनाओं की दुनिया से बाहर निकला जाए तो भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति विश्व में अनोखी मानी जाती है। भारत में परिवारों का बड़ा महत्व रहा है। जिसमें संयुक्त परिवारों की भूमिका काफी देखने को मिली है। हमारे देश में संयुक्त परिवार में बच्चे को दादा-दादी माता-पिता, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, भाई-बहन इत्यादि बहुत से रिश्ते करीब से देखे और व्यवहार में लिए जाते रहे हैं। इस कारण इस देश में बुजुर्गों का सम्मान सदियों से किया जाता रहा है। जगह-जगह पर वृद्ध आश्रम खोला जाना हमारी संस्कृति का हिस्सा बिल्कुल नहीं है। यह सब पश्चिमी देशों में तो हो सकता है, परंतु भारत में ऐसा होना है बहुत कुछ प्रश्नों को जन्म देता है। इस देश में संस्कार जन्म के साथ ही मिल जाते हैं, उन्हें अलग से देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। रिश्तों की जो समझ और पकड़े बच्चा परिवार में सीखता है, यह सब शिक्षा और स्कूली पाठ्यक्रम में नहीं सीख सकता। इससे भी बढक़र इस देश में बच्चों का बुजुर्गों के पास बैठकर जानकारी लेना बहुत महत्वपूर्ण रहा है। बच्चे सदैव अपने बुजुर्गों दादा-दादी, नाना-नानी या पड़ोस के अन्य लोगों के पास बैठकर बहुत सी जानकारियां ले लेते थे। इन सब जानकारियों में उनके गांव परिवार और बड़े-बड़े परिवारों की जानकारियां और इनके अलावा दूसरे गांव और दूसरे रिश्तेदारों की भी जानकारी ले लेते थे, जो बड़े होकर अपने जीवन में इन सब चीजों का फायदा उठाते थे और यह संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी काम आते थे। यही संस्कार बड़ों की इज्जत करना सिखाते थे, परंतु भागदौड़ की दुनिया में लोगों ने अपने बच्चों को पढ़ाना लिखाना यहां तक कि बाहर भेजना प्रारंभ कर दिया और इसके साथ-साथ समय के साथ चलने वाले लोगों ने गांव की दुनिया से शहर की दुनिया में प्रवेश करना भी प्रारंभ कर दिया। हालांकि अपनी संतान को पढ़ाना लिखाना या कामयाब करना व्यक्ति का कर्तव्य भी है, परंतु यहां से कुछ अन्य चीजें निकल कर सामने आई। जिससे वृद्ध आश्रम जैसी संस्थाओं का अस्तित्व में आना हुआ। जिन लोगों ने अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दी या फिर अपने बच्चों को पढऩे के लिए या कामयाबी के लिए विदेशों में भेज दिया उनके लिए यह एक अलग प्रकार का अनुभव रहा कि बुढ़ापे में जिस संतान की आवश्यकता होती है, वह संतान उन्हें नहीं मिली या पास नहीं आ सकी। वैसे तो इस देश में लोग जब तक हर संध्या अपने माता-पिता या बुजुर्ग के पास बैठ कर बातें नहीं कर लेते या उनकी कुछ सेवा नहीं कर लेते तब तक उन्हें चैन नहीं आता। अर्थात यह सब उनकी दिनचर्या का हिस्सा होता है, परंतु शहरीकरण और विदेश में भागने की होड़ के कारण बहुत से कामयाब लोग अपने बुढ़ापे की जिंदगी वृद्ध आश्रम में काटने को मजबूर हो रहे हैं। जिस समय बुजुर्गों को औलाद की संतान के साथ खेलने का मन होता है, उस समय वह संतान उनके पास नहीं होती। यहां तक कि जब कभी उन बच्चों का दादा-दादी या नाना-नानी से मिलना होता है तो वे उन्हें पहचानते ही नहीं या उनसे उनका लगाव भी नहीं हो पाता। यह शिक्षा और संस्कार की कमी है या कामयाबी की चकाचौंध। इसका निर्णय तो समय ही करता है, परंतु जिन लोगों ने अपने परिवार को कामयाबी के शिखर तक पहुंचाया, उन्हीं लोगों के साथ ऐसा होता है यह भी देखा गया है। इसमें ग्रामीण इलाके में रहने वाले लोगों के साथ इस प्रकार का व्यवहार कम देखने को मिलता है या ना के बराबर होता है, परंतु शहरों में एक दूसरे के जीवन में झांकने का मौका दूसरों को कम ही मिलता है। इसलिए शहर की दुनिया एकांतवास की दुनिया भी कहीं जाती है। शिक्षा यदि संस्कार ही न सिखाए तो फिर वह क्या शिक्षा है? वह या तो अधूरी शिक्षा है या फिर संपूर्ण है तो उसमें बदलाव किया जाना अति आवश्यक है। बहुत साल पहले एक फिल्म आई थी नाम इस फिल्म का एक गाना था चि_ी आई है आई है चि_ी आई है, उसमें एक लाइन आती है पहले जब तू खत लिखता था कागज में चेहरा दिखता था, खत्म हुआ यह मेल भी अब तो यह गीत इस बात की ओर इशारा भी करता है कि दूरी धीर- धीरे रिश्तों को दूर कर देती है। अर्थात संतान का माता-पिता से दूर होना और अगली पीढ़ी का माता-पिता से संपर्क खत्म होना भी वृद्ध आश्रम को जन्म देता है। पीछे हमारे देश की ही एक घटना जिसका जिक्र अखबारों में भी किया गया था। श्रीमती साहनी जिनका बेटा अमेरिका में रहता था और जीवन के अंतिम समय में श्रीमती साहनी को परिवार की आवश्यकता थी, परंतु कामयाबी की चकाचौंध ने उस बुजुर्ग महिला को अपने परिवार से जुदा कर रखा था, जब उनका मृत शरीर या उसे कंकाल कहे तो वह उनके करोड़ों रुपए के फ्लैट में मिला और यह भी जानकारी मिली कि उनके बेटे से उनकी आखरी बार बात सवा साल पहले हुई थी। अर्थात उनके बेटे ने पिछले सवा साल से अपनी माता से बात ही नहीं की। क्या उस बेटे को यह पता नहीं था कि उम्र के अंतिम पड़ाव में क्या माता को उनकी आवश्यकता ही नहीं पड़ी? जब उनका शव उनके फ्लैट से निकाला गया तो उनको मरे हुए सवा साल बीत चुका था। बेटे को सवा साल से माता का हाल चाल जानने का अवसर ही नहीं मिला। इसे हम कामयाबी की चकाचौंध तो नहीं कहेंगे यह संस्कार हीन शिक्षा है या कामयाबी का गिरा हुआ स्तर है। भारत जैसे संस्कारी देश में इस प्रकार संतान का व्यवहार अपने माता-पिता के साथ होना आज कल की दुनिया में काफी देखने को मिल रहा है। इस बात में प्रश्न यह भी उठता है कि क्या करोड़ों के फ्लैट में रहने वाली महिला के परिवार में और कोई नहीं था या बेटे की पत्नी और उसकी संतान को पता ही नहीं था कि उनकी माता या दादी कहां और किस हालत में है? वृद्ध आश्रम की चारपाई पर पड़े बुजुर्गों को शायद अंतिम समय तक अपनी संतान के आने का इंतजार रहता है। यह नए भारत की नई संस्कृति है जो भारत की असली पहचान मिटाने की दिशा में आगे बढ़ रही है। इस बारे में हमारे तरक्की पसंद वर्तमान पीढ़ी को सोचना पड़ेगा कि संस्कृति को यदि समय रहते नहीं बदला गया या बच्चों को इस बारे में जागरूक नहीं किया गया तो समय बहुत ही भयानक रूप लेता जाएगा।
विनोद रोहिल्ला, शिक्षक, लेखक एक सरकारी शिक्षक हैं