डा. मनोज कुमार
सहायक आचार्य, प्रा. भा. इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग,
ई. गां. राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक, मध्य प्रदेश।
मानव के विकास में यातायात एवं इससे संबंधित आधारभूत संरचनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्राचीन काल से ही आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास के लिए विभिन्न प्रकार की सडक़ों का निर्माण किया गया, और उनके समीप आवागमन की सुविधा हेतु अनेक प्रकार की संरचनाएं विकसित की गयी। जिनमें विश्राम गृह, कुएं, दूरी सूचक पाषाण खंड या मील का पत्थर आदि प्रमुख थे। ये संरचनाएं मुख्य रूप से प्रमुख मार्गों या राजमार्गों के किनारे स्थापित किए गए। जिनमें से कुछ के प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं। इन्हीं प्रमुख आधारभूत संरचनाओं में से एक दूरी सूचक पाषाण खंड या मील का पत्थर है, जिसे मध्यकाल में कोस मीनार के नाम से जाना जाता था। वर्तमान में उपलब्ध कोस मीनारों का निर्माण यद्यपि मध्यकाल में किया गया, लेकिन इस तरह की व्यवस्था हमारी संस्कृति में प्राचीन काल से ही मौजूद थी। छठी सदी ईसा पूर्व में द्वितीय नगरीकरण के दौरान विकसित विभिन्न प्रकार के व्यापारिक गतिविधियों में मार्गों एवं संबंधित संरचनाओं की प्रमुख भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। मौर्य काल तक देश में एक सुव्यवस्थित सडक़ प्रणाली का विकास हो चुका था, जिसकी पुष्टि उत्तरापथ एवं दक्षिणापथ के रूप में कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं अन्य कई ग्रंथों से होती है। उत्तरापथ, तत्कालीन राजधानी पाटलिपुत्र को उत्तर पश्चिम के अनेक प्रमुख शहरों-तक्षशिला, गांधार और पेशावर से जोड़ता था। यूनानी लेखक मेगास्थनीज जो इसी मार्ग से भारत में प्रवेश किया था स्पष्ट रूप से लिखता है कि भारतवर्ष में प्रमुख मार्गों के किनारे दस स्टाडिया (लगभग एक कोस) की दूरी पर मील का पत्थर लगाए जाते थे। यह सम्भावना भी व्यक्त की जा सकती है कि पाषाण के प्रयोग के पहले मिट्टी या लकड़ी के छोटे स्तंभों का प्रयोग इस कार्य के लिए किया जाता रहा होगा। अशोक के अभिलेखों में भी हमें सडक़ों के किनारे शासक के द्वारा प्रदत सुविधाओं का उल्लेख मिलता है। ये व्यवस्थाएं कमोबेश गुप्त काल एवं उसके बाद तक चलती रही।
सोनार गांव से लेकर मुल्तान तक हुआ विस्तार
मध्यकाल में शेरशाह जब 1539-40 ईस्वी में शासक बना तब उसने विभिन्न प्रशासनिक कारणों से मार्गों के विकास पर विशेष ध्यान दिया और पहले से मौजूद अनेक मार्गों का जीर्णोद्धार एवं विस्तार करवाया। इसी क्रम में उसने उत्तरापथ का भी सुदृढ़ीकरण करवाया और उसे (सडक़-ए-आजम) का नाम दिया गया। ब्रिटिश काल में यही सडक़ कुछ परिवर्तनों एवं विस्तार के साथ (ग्रैंडट्रंक रोड) के नाम से विख्यात हुई और आज भी हम बोलचाल में इसे जीटी रोड के नाम से संबोधित करते हैं, जबकि सरकारी रूप में यह राष्ट्रीय राजमार्ग 1 और 2 के नाम से प्रचलित हैं। वर्तमान में उपलब्ध विभिन्न कोस मीनारों का इतिहास मुख्यत: शेरशाह के समय से प्रारंभ होता है, जब उसने अन्य सुविधाओं के अतिरिक्त प्रत्येक एक कोस अर्थात 3.65 किलोमीटर की दूरी पर एक मीनार का निर्माण करवाया। उसने इस सडक़ का विस्तार पूर्व में सोनार गांव (वर्तमान बांग्लादेश) से लेकर पश्चिम में मुल्तान (वर्तमान पाकिस्तान) तक करवाया था, जिसे कालांतर में मुगल शासकों ने और विस्तार दिया।
राष्ट्रीय राजमार्ग 21 के समीप आज भी मौजूद
मुगल शासकों में इस परंपरा का प्रारम्भ बाबर के द्वारा किया गया। जिसका उल्लेख बाबरनामा में मिलता है कि उसने आगरा एवं काबुल के बीच प्रत्येक 9 कोस की दूरी पर दूरी-सूचक व्यवस्था करने का आदेश दिया था, लेकिन उसके पुरातात्त्विक प्रमाण उपलब्ध नहीं होते। जहां तक उपलब्ध पुरातात्त्विक प्रमाणों की बात है हमें अकबर एवं जहांगीर के द्वारा निर्मित कोस मीनार ही मुख्य रूप से प्राप्त होते हैं। अकबर ने मुख्यतया आगरा-अजमेर, आगरा-लाहौर (भाया दिल्ली) तथा आगरा-मांडू खंडों पर विशेष ध्यान दिया। उसके द्वारा निर्मित कोस मीनार राष्ट्रीय राजमार्ग-21 पर आगरा के समीप सहारा स्थल पर आज भी मौजूद हैं। जहांगीर के द्वारा निर्मित कोस मीनार मुख्य रूप से आगरा-लाहौर खंड पर मिलते हैं, और हरियाणा और पंजाब में आजकल जितने भी कोस मीनार उपलब्ध हैं उनमे से अधिकांश जहांगीर के काल में ही निर्मित हुए थे। शाहजहां ने भी कुछ मीनारों का संवर्धन करवाया और हरियाणा के कुछ वैसे कोस मीनार जिन पर चित्रांकन भी किया गया है वह शाहजहां के काल के माने जा सकते हैं। यह सभी कोस मीनार पत्थर के अनगढ़ टुकड़े या ईटों से निर्मित हैं, जिन पर सुर्खी चुने के मिश्रण का प्लास्टर किया गया है। स्थापत्य की दृष्टि से इन कोस मीनारों को तीन भागों में बांटा जा सकता है। निचला एक तिहाई भाग जो अष्टपहल होता है, इसके ऊपर का बेलनाकार भाग है जो ऊपर की तरफ क्रमश: संकरा होते जाता है और तीसरा शीर्ष गोलाकार भाग। ये तीनो भाग एक वलय (रिंग) द्वारा पृथक किये गये हैं। जहां तक विभिन्न शासकों द्वारा निर्मित कोस मीनारों की पहचान का प्रश्न है, इसके संबंध में यह कहा जा सकता है कि अकबर के काल के कोस मीनार मुख्य रूप से अनगढ पाषाण खंडों द्वारा निर्मित होते थे, जबकि जहांगीर के समय के कोस मीनार ईटों के द्वारा निर्मित किए जाते थे। जहांगीरयुगीन कोस मीनार अपेक्षाकृत अधिक ऊंचाई के एवं सुघड़ होते थे। जबकि अकबर के काल के मीनार अपेक्षाकृत छोटे एवं अधिक परिधि वाले होते थे। इन मीनारों के अतिरिक्त एक अन्य वर्ग के कोस मीनार कानपुर देहात जिले में औरैया के आसपास मिलते हैं, जो स्थापत्य की दृष्टि से प्रारंभिक अवस्था के प्रतिनिधित्व करते हैं तथा इनकी ऊंचाई भी काफी कम है एवं इन का निचला भाग अन्य कोस मीनारों की तरह अष्ट पहल नहीं होता। मेरा यह व्यक्तिगत मत है कि इस श्रेणी के कोस मीनारों का निर्माण शेरशाह के द्वारा करवाया गया था, क्योंकि स्थापत्य की दृष्टि से यह स्पष्ट रूप से पूर्ववर्ती प्रतीत होता हैं और यह उसी क्षेत्र में मिल रहा है जो शेरशाह के पैतृक क्षेत्र को जोडऩे वाले मार्ग में अवस्थित था। कोस मीनार एवं इनसे संबंधित अन्य संरचनाओं के आधार पर हम उपलब्ध कोस मीनारों को मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं।
- साधारण कोस मीनार जो केवल मील के पत्थर के रूप में प्रयुक्त होते थे।
- आदर्श कोस मीनार जिनका प्रयोग संस्थागत कार्यो के लिए भी किया जाता था, जहां यात्रियों एवं अन्य प्रशासनिक कार्यों के संपादन से संबंधित व्यापक सुविधाएं जैसे सराय, बावड़ी, डाक चौकी आदि की व्यवस्था रहती थी और यहां रात्रि विश्राम भी किया जा सकता था। पलवल के समीप होडल का कोस मीनार इस श्रेणी का एक अच्छा उदाहरण है जहां पर कोस मीनार के समीप सराय, बावड़ी आदि के प्रमाण मिलते हैं। जहां तक कोस मीनारों की कुल संख्या का प्रश्न है, इस संबंध में यह आकलन किया जा सकता है कि मुगल काल में बादशाही सडक़ के रूप में जो राजमार्ग पूर्व में चटगांव से लेकर उत्तर पश्चिमी में काबुल तक विकसित किया गया था उसकी दूरी लगभग 3000 किलोमीटर थी और यदि उस दौरान 3.65 किलोमीटर की दूरी पर कोस मीनार बनाने की परंपरा थी तो इनकी कुल संख्या 900 के ऊपर ही होनी चाहिए, लेकिन वर्तमान में हमें भारत वर्ष में केवल 140-50 के आस-पास ही कोस मीनार उपलब्ध हैं, जिनमें से लगभग 115 भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा अधिग्रहित हैं। अन्य के देखरेख की जिम्मेदारी या तो राज्य सरकारों के पास से या वे आज भी उपेक्षा के शिकार हैं। राज्यवार आंकड़ो की दृष्टि से सर्वाधिक कोस मीनार हरियाणा राज्य में पाये गये हैं, जहां कई ऐसे कोस मीनार हैं जो घनी आबादी के कारण नष्ट होने के कागार पर पहुंच गये हैं और कुछ तो सडक़ों की ऊंचाई के क्रमश: बढऩे के कारण अपने मूल स्वरुप को ही खो चुके हैं, जिसका ज्वलंत उदाहरण दिल्ली के पास बदरपुर का कोस मीनार है। कभी भटके हुए को रास्ता दिखाने का काम करने वाले ये मीनार आज के विकास के दौर में अपने उद्देश्य से विलग हो अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। अत: आवश्यकता इस बात की है इन उपेक्षित स्मारकों को संरक्षित रखने हेतु आम जनता में विशेष रूप से जागरूकता अभियान चलाया जाए, ताकि ये मीनार आने वाली पीढिय़ों को भी रास्ता दिखाने का कार्य कर सकें।