सिद्धपीठ तीर्थ सतकुंभा धाम : परम प्रसिद्ध श्री 108 लज्जा राम जी द्वारा स्थापित संस्था के प्रबन्धक महन्त श्री आत्मस्वरूप जी महाराज का जीवन बड़ा ही अद्भुत कर्मयोगी सेवाधर्म में लिप्त रहा। आदि गुरु द्वारा रोपित वृक्ष को ऐसा संवारा कि इसकी काया पलट हो गई। तीर्थ पाण्डु-पिण्डारा पर केवल यात्री विश्राम ही नहीं अपितु श्रीमद्भागवत जैसे बड़े -बड़े अनुष्ठानों का यह केन्द्र बन गया। आपने धर्मसंस्कृति और वेद रक्षा की इस संस्था को न केवल संभाल कर रखा अपितु ंइस अमूल्य धन को अक्षुण्य भी कर दिया। जिसके जगमग प्रकाश से धर्म और संस्कृति का पथ प्रकाशित, आलौकित होता रहेगा। आपने आदि गुरु श्री लज्जा राम का ऐसा नाम रोशन किया कि केवल हरियाणा में ही नहीं सम्पूर्ण भारत वर्ष में संस्था जानी जाती है। यह सब कुछ अचानक ही नहीं हुआ ऐसा पहले भी नहीं था जैसा आज है। इन सबके पीछे कर्ता श्री भगवान मूलभावना कठोर परिश्रम और शब्द व्यवहार आपके करकमलों से निर्मित इस पवित्र संस्था की यज्ञशाला में जब तक वेदमन्त्रों की ऋचाएं गूंजती रहेंगी तब तक इस धरा पर संस्था का नाम अमर रहेगा। आपने 1960 के दशक में औषधालय की स्थापना की। जिसमें आप स्वयं इलाज करते थे। उस समय वैध और औषधियों का बड़ा अभाव था। इसलिए आस-पास के क्षेत्र में आपकी बड़ी प्रसिद्धि हुई अनेकों स्त्री-पुरुष अत्यन्त व्याधिग्रस्त थे जिनका उपचार आपके हाथों से सफल सिद्ध हुआ। परन्तुं बाद मंर अग्रेंजी दवाओं का प्रचार प्रसार बढऩे के कारण तथा समयाभाव होने से औषधालय को बन्द कर दिया गया केवल औषधी बाजार से लाने के लिए लिखने लगे। परमादरणीय देवेन्द्र स्वरूप ब्रह्मचारी जी महाराज आपके लंगोटिया-यार थे। उनके कहने पर आपने ‘‘विद्या दान सर्वोत्तम दान की उक्ति को मानकर संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार द्वारा मानव मात्र का धर्म और पुनीत कर्तव्य हो इसलिए श्री लज्जा राम संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की।’’ आपका जीवन सरल और सादगी पूर्ण था। परोपकार की भावना आपके रोम-रोम में भरी हुई थी। कोई भी सज्जन किसी भी कार्य के लिए आपको कहता तो आप तुरन्त उसकी कार्य सिद्धि हेतु दौड़ पड़ते। आपके महाविद्यालय में अनेकों निर्धन छात्रों ने शिक्षा ग्रहण की तथा जीवन के पथ पर अग्रसर हुए । उनके परिवार आज भी आपका यशोगान करते है। अनेकों बड़े-बड़े अधिकारियों से आपका परिचय था । वे लोग आपके परामर्श की पालना करते थे। इसलिए राजकीय सेवा में सीधे ही अनेकों जरूरतमन्द व्यक्तियों की नियुक्ति करवा दी गई। तीर्थ में पानी डलवाना होता तो यह जिम्मेवारी भी आपकी होती थी। पिण्डारा तीर्थ की परिक्रमा सडक़ श्री ओमप्रकाश चैटाला मुख्यमंत्री के काल में श्री ओमप्रकाश भारद्वाज द्वारा आपके कहने पर ही बनवाई गई। पिण्डारा रेलवे स्टेशन से तीर्थ तक की सडक़ का निर्माण भी सतत् प्रयासों से ही सम्भव हो पाया। आपने धर्मसेवा के अनेकों कार्यक्रमों में भाग लिया। पुण्यात्मा किशनी देवी जिन्होनें कृष्णाधाम रामराय व हरिद्वार आश्रमों की स्थापना की थी उसको आप मातृ स्वरूप मानते थे। रामराय में चैत्र मास में दण्डी स्वामियों की सेवा में रहते हुए प्रयाग कुम्भ के शिविरों में भी आपने भाग लिया पहले समय में पिण्डारा व सतकुम्भा आश्रम में अनेकों दण्डी स्वामी चत्तुुर्थ मास करते थे, जिनकी सम्पूर्ण व्यवस्था आप के द्वारा की जाती थी। समाज में वर कन्या का मिलान करवाना एक बड़ा सौभाग्यशाली कार्य माना जाता है जिसमें आप विशेष रूचि लेते थे। अनेकों परिवार आप द्वारा मिलान करवाए गए जिनकी सद् गृहस्थी आज पुष्पिफलित है।
जन्म एवं पारिवारिक परिचय : आपका जन्म चैत्र सुदी दूज गुरूवार वि ़सं ़ 1983 को आत्रेय गौत्र कृषक गौड़़़़़़ ब्राह्मण पंडित श्री रामधारी मल की पत्नी पूज्या माता श्रीमति जानकी की कोख से गॉव छात्तर जिला जीन्द में हुआ। आपके चार भाई तथा एक बहन थी । आप पिता की तीसरी संतान थे आपका नाम आत्माराम रखा गया।
गृहत्याग व शिक्षा : उस समय शिक्षा का कोई विशेष प्रचार प्रसार न था। गॉव के मन्दिर चैपाल में ही कोई विद्वान पंडित प्रारम्भिक शिक्षा प्रदान किया करते थे। आपने यह शिक्षा गॉव में ही प्राप्त की। मृत्यु से कुछ पूर्व समय ही आपने गृहत्याग का वर्णन अपने मुख से सुनाया कि मैंने अपनी बड़ी भाभी से खाना खाते समय रोटी मांगी तो उन्होंने दूर से ही रोटी फेंक दी जिस कारण तुरंत ही घर का त्याग कर दिया। क्षेत्र में बाढ़ आयी हुई थी। यातायात के कोई साधन नहीं थे पैदल ही मुंह अंधेरे पानी में से गुजरते हुए 7 कोस उचाना रेलवे स्टेशन पहुंच गए। किसी के कहने पर संयोगवश गुरू देव श्रेष्ठ श्री रामचन्द्र महाराज जी के सानिध्य में आ गए । महाराजश्री को घरेलू स्थिति तथा पढऩे की इच्छा बताई आश्रम से सेवक गॉव भेजे गए तथा इनके पिता व भाई को बुलाया गया। श्री रामचन्द्र महाराज जी ने कहा कि ये यहीं पर शिक्षा ग्रहण कर लेगा बाद में इसे ले जाना। आत्माराम जी द्वारा आश्रम के काम में हाथ बंटाया जाने लगा। शिक्षा में रूचि कम होने लगी इस स्थिति में महाराज श्री ने देखा तो उन्होंने शिक्षा ग्रहण करने के उद्देश्य से धर्म संघ संस्कृत महाविद्यालय दिल्ली में स्वामी करपात्री जी के पास संस्कृत शिक्षा हेतु भेज दिया गया। वहां से शिक्षा ग्रहण करने के बाद हरियाणा में प्रसिद्ध संस्कृत पाठशाला शेखावटी ब्र्रह्मचार्य आश्रम भिवानी में आचार्य छज्जुराम, आचार्य श्री अयोध्या प्रसाद के आचार्यत्व में शिक्षा ग्रहण की। इनके सहपाठी श्री देवेन्द्र स्वरूप ब्रह्मचारी, श्री नारायण स्वरूप जी, व अनेकों मूर्धन्य संस्कृत विद्वान रहे हैं। परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वापस तीर्थ पिण्डारा आ गए। बुद्धि परिपक्व हो चुकी थी। इसलिए गुरुदेव ने भविष्य के बारे में जानना चाहा तब आत्माराम जी ने तुरन्त जवाब दिया कि महाराज जो शिक्षा आप मेरे को दिलवा रहे हो यह अन्यत्र किसी प्रयोजन के लिए नहीं है बल्कि आप अगर अपनी शरण में रखेंगें तो इस डेरे व जनता के लिए समर्पित करुंगा, शिष्य के ऐसे कथन सुनकर तुरन्त महाराज जी को अगाध प्रेम उमड़ आया तथा इन्हें अपने गले लगा लिया। भक्तजनों को सूचित किया गया तब श्री आत्माराम जी को माघ शुक्ल पंचमी विक्रमी संवंत 2001 वार गुरुवार 16 फरवरी 1945 को यज्ञोपवीत करके उत्तराधिकारी दीक्षा प्रदान कर दी गई तथा आत्माराम से आत्मस्वरूप महाराज नामकरण कर दिया गया। उस समय क्षेत्र में चिक्त्सिा का बड़ा अभाव था इस बात को ध्यान में रखते हुए गुरूदेव से अनुमति प्राप्त कर आयुर्वेद वैद्य विशारद की शिक्षा ग्रहण करने हेतु जयपुर चले गए। वैद्य विशारद की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त राजकीय औषधालय में जिला रोहतक के गॉव में सहायक चिकित्सक के रूप में नियुक्ति हो गई। 8 वर्ष तक अपने इस कार्यभार को सम्भाला। पूज्य चरण गुरुदेव के अस्वस्थ रहने व आश्रम संस्थाओं का कार्यभार ज्यादा होने की वजह से आपने सरकारी नौकरी त्याग दी तथा आश्रम में औषधालय की स्थापना कर दी। वह समय कैसा कठिन था उसका एक छोटा सा उदाहरण आप हमेशा सुनाया करते कि पिण्डारा से जीन्द तक रेतीला कच्चा मार्ग था अनेकों झाडिय़ां रास्ते में मौजूद थी। एक बार गुरु जी के उपदेश से अपनी किताबों तथा कपड़ों के लिए एक आना लेने के लिए ज्येष्ठ एकादशी को दोपहर में पण्डित हरिश्चन्द्र गौड़ न्यायाधीश की कोर्ट में जाना पड़ा था क्योंकि वे जज महाराज जी के शिष्य थे। महाराज जी के रहते आपने सम्पूर्ण निपुणता प्राप्त कर ली थी। इसलिए आश्रम की जिम्मेदारी बखूबी निभाने लगे तथा सतकुम्भा आश्रम खेड़ी गुज्जर गन्नौर की ऊबड़-खाबड़ भूमि को आपने मेहनत से जुतवा कर उपजाऊ बनवाया । आदि गुरु द्वारा लगाए गए बगीचों को सुरक्षित व संवर्धन किया। 10 जनवरी 1968 का दिन आपके लिए बड़ा अमंगलकारी था जोकि पितृ तुल्य गुरुदेव इस दुनिया में नहीं रहे। सम्पूर्ण कार्यभार आपके कन्धों पर आ गया। पिता का साया जबतक बेटे के सिर पर होता है जब तक बेटा चाहे कुछ भी कर ले उस कार्य की दिशा पिता के निमित ही मानी जाती है। इसलिए अकेलापन महसूस करते हुए गुरूजन के आशीर्वाद से आपने कार्य बढ़ाया आदि गुरु श्री लज्जाराम जी महाराज के समय से ही अन्तिम समय में आतुर सन्यास की पद्धति चली आ रही है जोकि गुरुदेव रामचन्द्र महाराज ने भी निभाई थी। स्वामी रामचन्द्र जी महाराज के षोडशी भण्डारे में अनेक सन्त महात्माओं आ आगमन हुआ था जिनका आर्शीवाद सदैव आप पर बना रहा । परमश्रद्धेय स्वामी श्री भूमानन्द जी परममित्र श्री देवेन्द्र स्वरूप जी एवं नारायण स्वरूप जी आदि आदि तीर्थ पाण्डु पिण्डारा धाम पर तीन समकालीन प्राचीन संस्थाएं हैं। श्री वक्तानन्द आश्रम कालवे वाली धर्मशाला व रतिराम संस्कृत पाठशाला, डेरा बाबा लोगपूरी व डेरा लज्जा राम इन संस्थाओं में समकालीन प्रबन्धक मंहत होते रहे है उसी के अनुरुप श्री जमुनानन्द जी महंत रतिराम संस्कृत पाठशाला व श्री राधाकृषण जी महाराज महन्त श्री वक्तानन्द आश्रम ये सब परममित्र रहे। इस प्रकार आपका समकालीन सन्त मित्र मण्डलीय युग बड़ा अच्छा रहा। जीवन भर सभी मित्रों ने आपसी स्नेहभाव को कायम रखा तथा एक दूसरी संस्था के लिए उच्चतर से उच्चतर मार्ग प्रशस्त करने के लिए सतत् प्रयास किया। आप समय समय पर कृष्णाधाम हरिद्वार को व्यवस्था हेतु पूज्या माता किशनी देवी के आदेश पर चले जाया करते थे।
श्री दण्डी स्वामी आत्मानन्द तीर्थ जी महाराज का महाप्रयाण:-
1. प्रात: स्मरणीय श्री आत्मस्वरूप जी महाराज तीर्थ पाण्डु पिण्डारा में हरिद्वार आश्रम का उद्घाटन करने के बाद अपने कक्ष में विश्राम करके सानन्द भ्रमण नित्य कर्म आदि हरिद्वार से आए अभी 18 दिन हुए थे कि चैत्र कृष्ण दूज सम्वत 2060, 8 मार्च 2004 सोमवार को अचानक अर्द्ध रात्रि को आपकी तबीयत खराब हो गयी। दो दिन तक वमन एवं विरेचन होते रहे जीन्द में योग्य चिकित्सकों से उनका उपचार करवाया। जिससे स्वास्थ्य लाभ हुआ परन्तु भाग्य को कुछ और ही स्वीकृत था, अकस्मात् ही हृदय परिवर्तन हुआ। महाराजश्री अपने शिष्य राजेश स्वरूप को कहा कि अब प्राणान्त होने वाला है। स्वास्थ्य बिगड़ेगा शक्ति क्षीण होती चली जायेगी पिण्डारा या हरिद्वार क्षेत्र को छोडक़र अन्यत्र मुझे अब नहीं ले जाना है पता नहीं कब यह नश्वर देह कूच कर जाए । इसलिए मुझे अब कुम्भ नगरी हरिद्वार ले चलो जब तक इस देह में सांस बाकी है पतितपावनी पुण्या सलिला के ऑचल में ही निवास करना है तथा आतुर सन्यास लेने के लिए इच्छा प्रकट की।
2. व्याधिग्रस्त दिवस से लाभ के कुछ दिवस बाद 2 अप्रैल 2004 को महाराज श्री ने ब्रह्मवेला में वैकुण्ठ धाम की कल्पना की तथा आदि गुरु श्री लज्जा राम जी महाराज व गुरु श्री रामचन्द्र जी महाराज की समाधि तथा भगवान गंगाधर के दर्शन किए, तथा मां भागीरिथी के द्वार के लिए प्रस्थान किया। हरिद्वार आगमन की सूचना पाते ही महाराजश्री के परम शिष्य जागेराम शास्त्री संचालक श्री कृष्णाधाम आश्रम हरिद्वार शीघ्र महाराज जी के दर्शन हेतु पधारे। गुरु शिष्य का आपसी स्नेह वार्तालाप हुआ, तथा स्वामी निगमबोध तीर्थ-वेद मन्दिर लुधियाना से सन्यास दिक्षा बारे निर्णय लिया गया। स्वामी जी को दूरभाष पर श्री आत्मस्वरूप के निर्णय बारे आग्रह किया तो स्वामी जी भी आश्रम पहुॅच गए दोंनो ही अपने अपने विषयों के उत्कृष्ट विद्वान तो थे ही परस्पर श्रद्धा प्रेम भी रखते थे। स्वामी जी और महाराजश्री में मोह -माया बारे चर्चा हुई अन्तत: जीवन से मोह भंग जानकर हनुमान जयंती को सन्यास दिक्षा कर्म करवाने बारे प्रभु कृपा से मुहुर्त तय किया गया। विधिवत श्री आत्मस्वरूप जी ने श्री रामधन गुप्ता मोरखी वाले द्वारा अपनी पत्नी की स्मृति में निर्मित फूलपति घाट भूपतवाला हरिद्वार में याज्ञिक ब्राह्मणों द्वारा सन्यास दिक्षा कर्म करवाकर स्वामी निगमबोध जी से दीक्षा ग्रहण की। गेरूए पीत वस्त्रों का उत्तरीय वस्त्र ओढ़ा। अब श्री आत्मस्वरूप जी ‘‘दण्डी स्वामी आत्मानन्द तीर्थ ’’ जी हो गए। मृत्यु तक ओमकारमय रहे। कैसा अद्भुत संयोग है कि आतुर सन्यास दीक्षा के पश्चात् महाराजश्री को कोई मनसावाचाकर्मणा कोई भी दर्द शेष नहीं रहा, रहा तो मुख में केवल ‘‘नारायण’’ ।
3. किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि इतने शीघ्र वे इह लीला को समाप्त कर परलोक प्रस्थान कर जायेंगें । वैशाख शुक्ल सप्तमी विक्रमी सम्वत् 2061 भौमवार दिनांक 27 अपै्रल 2004 को दोपहर 1 बजे स्वामी आत्मानन्द तीर्थ जी महाराज ने अपने दादा गुरु श्री लज्जा राम परम् पूज्य गुरूदेव रामचन्द्र जी के चित्र को देखा। मानो कह रहे हो! हे गुरूदेव मुझे अपनी गोद में बुला लो। जीवन भर आश्रम के उत्तरदायित्व की नाव को धैर्य एवं परिश्रम से खेट रहा हूॅ अब थक चुका हूॅं अपने द्वार बुला ले परन्तु ज्यादा कुछ न कहने की स्थिति में होंठ फडफ़ड़ाए परन्तु कुछ न कह पाने की स्थिति में शान्त चित्त होकर ऑंखे बन्द कर ली और समाधिस्थ हो गए। पुन: क्षण भर के लिए ऑंखे खोली ओम् नम: शिवाय की स्पष्ट ध्वनि होंठो से निकली और सदा – सदा के लिए ऑंखे बन्द कर ली। आश्रम में रूदन मच गया, तुरन्त पिण्डारा धाम आश्रम में संदेश भेज दिया गया। महाराजश्री के देहावासन का समाचार सारे क्षेत्र में आग की तरह फैल गया। विशाल जनसमूह श्री लज्जा राम आश्रम हरिद्वार में इक्_े हो गये। ब्रह्मचारी श्री सतपाल जी व श्री जागेराम शास्त्री जी ने शिष्य राजेश स्वरूप से अंतिम संस्कार बारे पूछा तो उन्होंनें सन्यासी रीति के बारे में अनभिज्ञता बताई तब सन्यास दिक्षा समय उपस्थित सर्वश्री सत्यपाल महाराज, जागेराम शास्त्री, स्वामी निगमबोध जी आदि के सामने श्री आत्मस्वरूप जी द्वारा जल समाधि संकल्प को याद किया गया तथा 28.04.2004 प्रात: 9 बजे जल समाधि की घोषणा कर दी गई।
4. स्वामी आत्मानन्द तीर्थ जी को पंचामृत से स्नान कराया गया। सर्व प्रथम शिष्य राजेश स्वरूप ने दोशाला उढ़ाया तथा माल्यार्पण किया। श्री सत्यपाल जी महाराज, जागे राम शास्त्री, श्री संजय महंत, श्री चन्द्रानन्द, श्री नरेशानन्द अन्य भक्त जनों ने श्रद्धा सुमन अर्पित कर साद्र नमन किया।
5:- समाधि के पूर्व सु:सज्जित विमान पालकी तैयार था। निर्धारित समय पर अंतिम यात्रा की सवारी निकली। शंख ध्वनि और घडिय़ाल के साथ ही बैण्ड बाजे बज उठे। कीर्तन मण्डलियों ने रामधुन के साथ प्रभुनाम का उचारण करके कीर्तन करना आरंभ किया। पुष्पवर्षा, खीलों की न्योछावर, रूपयों की वर्षा होने लगी जय जयकार के नारों से गगन गूंज उठा। सभी अपना अपना कंधा देकर अपनी-अपनी श्रद्धा प्रकट कर रहे थे। सर्वानन्द घाट पर जन कल्याणकारिणी पतितपावनी भगवती गंगा माता की निर्मल जल धारा बह रही थी। विमान को निचे उतारा गया। सभी ने परिक्रमा पूर्वक अंतिम नमस्कार किया यहां पर श्री सत्यपाल ब्रह्मचारी जी अध्यक्ष्ज्ञतण् नगर पालिका हरिद्वार ने महाराज श्री को अंतिम चद्दर भेंट की तथा नमस्कार किया। सभी सम्भ्रान्त जनों ने शिष्य राजेश्वर को ऐसा करें ऐसा करें समझाते हुए अंतिम संस्कार करवाया। मॉ गंगा के सतत् प्रवहमान् अनंत जल – तल में जय जयकार के साथ स्वामी आत्मानन्द तीर्थ जी को जल समाधि दे दी गई। देखते ही देखते पार्थिव शरीर मॉ गंगा जी की गोद में समा गया जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है। बाहर भीतर पानी यह सब अकथ कहानी। सब अदृश्य हो गया बाकि रही केवल उनकी यशोगाथा, विद्वता व कहानियॉ, शास्त्रार्थ की चर्चाएं और फक्कड़ स्वभाव की मधुर यादें। सभी लोग गंगा स्नान करके आश्रम में वापिस लौट रहे थे। तथा मार्ग में एक दूसरे के साथ तरह – तरह की बातें कर रहे थे। परन्तु शोक- सन्तप्त राजेश्वर की ऑखों के सामने था, निराशाजनित अंधकार, अनजानी राह, अनुभवहीनता, धन का अभाव, और किशोर कंधों पर आश्रम के संचालन का गुरूता भार। आश्रम में पहुंचकर देखा – सब ओर शुन्यता, निराशा, अकेलापन था। इस महती विपत्ति में धीरज बंधाने वाला एकमात्र सहारा गुरूवर का नाम , व उनका आर्शिवाद ही था। सन्त मण्डली ने सांत्वना दी, दृढ़ बनकर गुरू भार संभालने की प्रेरणा दी और वरदान स्वरूप आर्शिवाद दिया।
‘‘ चलो अनन्त पथ में बनकर परम कर्म योगी।
धर्मरूप लज्जा राम की भांति बनो परम यशस्वी।। ’’
आसमान में काले बादल छा उठे । गंगा मैया भी अपने पुत्र को गोद में लेने के लिए शायद विरह वेदना से तड़प रही थी। जीवन भर परोपकारी उद्देश्यों को निभाते – निभाते यह शरीर व आत्मा परमात्मा में लीन हो गए संस्था की सन्यास परम्परा न टूट, यही आर्शीवाद आदि गुरूओं के द्वारा प्रदान किया एवं महाराज श्री का मार्ग प्रशस्त किया।
5. समाधि के पूर्व सु:सज्जित विमान पालकी तैयार था। निर्धारित समय पर अंतिम यात्रा की सवारी निकली। शंख ध्वनि और घडिय़ाल के साथ ही बैण्ड बाजे बज उठे। कीर्तन मण्डलियों ने रामधुन के साथ प्रभुनाम का उच्चारण करके कीर्तन करना आरंभ किया। पुष्प एवं खीलों की वर्षा रुपयों की वर्षा होने लगी जय जयकार के नारों से गगन गूंज उठा। सभी अपना अपना कंधा देकर अपनी – अपनी श्रद्धा प्रकट कर रहे थे। 10 नम्बर घाट पर जन कल्याणकारिणी पतितपावनी भगवती गंगा माता की निर्मल जल धारा बह रही थी। विमान को नीचे उतारा गया। सभी ने परिक्रमा पूर्वक अंतिम नमस्कार किया यहां पर श्री सत्यपाल ब्रह्मचारी जी अध्यक्ष नगर पालिका हरिद्वार ने महाराज श्री को अंतिम चद्दर भेंट की तथा नमस्कार किया। सभी सम्भ्रान्त जनों ने शिष्य राजेश स्परूप को ऐसा करें ऐसा करें समझाते हुए अंतिम संस्कार करवाया। मॉ गंगा के सत्त प्रवहमान् अनंत जल-तल में जय जयकार के साथ स्वामी आत्मानन्द तीर्थ जी को जल समाधि दे दी गई । देखते ही देखते पार्थिव शरीर मॉ गंगा जी की गोद में समा गया। जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है। बाहर भीतर पानी यह सब अकथ कहानी। सब अदृश्य हो गया बाकि रही केवल उनकी यशोगाथा, विद्वता व कहानियॉ, शास्त्रार्थ की चर्चाएं और फक्कड़ स्वभाव की मधुर यादें। सभी लोग गंगा स्नान करके आश्रम में वापिस लौट रहे थे तथा मार्ग में एक दूसरे के साथ तरह – तरह की बातें कर रहे थे, परन्तु शोक- सन्तप्त राजेश स्वरूप की ऑखों के सामने था:-निराशाजनित अंधकार, अनजानी राह, अनुभवहीनता, धन का अभाव, और किशोर कंधों पर आश्रम के संचालन का गुरुत्तर भार। आश्रम में पहुंचकर देखा – सब ओर शुन्यता, निराशा, अकेलापन था, इस महत्ति विपत्ति में धीरज बंधाने वाला एकमात्र सहारा गुरुवर का नाम उनका आशीर्वाद। सन्त मण्डली ने सांत्वना दी, दृढ़ बनकर गुरू भार संभालने की प्रेरणा दी और वरदान स्वरूप आशीर्वाद दिया ।
‘‘ चलो अनन्त पथ में बनकर परम कर्म योगी।
धर्मरूप लज्जा राम की भांति बनो परम यशस्वी।। ’’
आसमान में काले बादल छा उठे। गंगा मैया भी अपने पुत्र को गोद में लेने के लिए शायद विरह वेदना से तड़प रही थी। जीवन भर परोपकारी उद्देश्यों को निभाते-निभाते यह शरीर व आत्मा परमात्मा में लीन हो गए संस्था की आतुर सन्यास परम्परा न टूटे, यही आर्शीवाद आदि गुरुओं के द्वारा प्रदान किया एवं महाराज श्री का मार्ग प्रशस्त किया।