सिद्धपीठ तीर्थ सतकुंभा धाम : भारत भूमि संत महापुरुषों की जननी है, संत महापुरुषों ने आपने अनुभव एवं ज्ञान से समाज को एक नई दिशा दी है। जिनके बच्चों को अक्षरस भक्तजनों ने अनुपालना की और अपने जीनव को निष्कटक किया। कुरुक्षेत्र भूमि विश्व में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। जिस भूमि पर अनेको प्रसिद्ध तीर्थ है। जिनमें से एक पाण्डु पिंडारा तीर्थ भी है। प्रसिद्ध लीर्थ पांडू पिंडारा में स्थित लज्जाराम आश्रम के द्वितीय गद्दीनशीन महंत श्री रामचन्द्र जी का जीवन भी अलौकिक और दिव्य शक्तियों से पूर्ण रहा जिनका यशगान आज तक इस क्षेत्र के व्यक्ति समय-समय पर करते रहें है। रामचन्द्र जी महाराज का जन्म विक्रमी सम्वत् 1947 चैत्र शुक्ल नवमी (दिनांक 28 अप्रैल 1890 वार सोमवार) को रोहतक के साधी खिड़वाली नामक गांव में हुआ। माता पिता ने बड़े लाड प्यार से नाम रामचन्द्र रख दिया। पूज्य महाराज के पिता का नाम अज्युध्या प्रसाद व मां का नाम रामप्यारी था जो एक साधारण कृषक परिवार था। गौड़ मुदगिल परिवार धार्मिक भावना से ओतप्रोत था। उस समय वेद विद्या अध्ययन के लिए भारत वर्ष में काशी नगरी का बहुत नाम था। इसलिए माता पिता ने विद्या अध्ययन के लिए 12 वर्ष की आयु में इनको काशी भेज दिया। कुशाग्र बुद्धि और कुछ करने की लालसा ने वेद अध्ययन के साथ-साथ वेदान्त का भी परम ज्ञानी बना दिया। वाराणसी में दण्डी स्वामियों, ब्रह्मचर्य से वार्तालाप, संभाषण ने इनको समाज सेवा के लिए प्रेरित किया और अपने ज्ञान का सदुपयोग सीमित दायरे में न करके समाज को प्रदान करने का संकल्प ले लिया। विद्या अध्ययन के बाद घर न आने का भी संकल्प ले लिया। इस संकल्प से सभी ग्रामवासी व परिवार वाले भयभीत हो गए। उनके मन में यह प्रश्न खड़ा हो गया कि कुछ गलत न हो जाए जिससे गांव समाज व परिवार में बदनामी हो। जिसके लिए 5-7 बुजुर्गों का दल काशी गया। वहां के विद्वानों से प्रार्थना करके रामचन्द्र को इस बात के लिए मनाया कि वे अपनी विद्वता व ज्ञान का प्रचार-प्रसार अपने ही क्षेत्र में प्रदान करें चूंकि तीर्थ पाण्डु पिण्डारा इस क्षेत्र का धार्मिक आस्था का क्षेत्र था। जहां अनेकों संत महात्मा, प्रकाण्ड पंडित निवास करते थे। इसलिए इनको लज्जा राम आश्रम में धर्म प्रचार के लिए छोड़ दिया गया। इनका एक सहपाठी हेतराम भी इनके साथ आ गया।
लज्जाराम महाराज भी बड़े तपोबल व त्याग तपस्या से समाज का धर्म का संदेश दे रहे थे। जिन्होंने उस समय में अनेकों आश्रमों की स्थापना कर दी थी। धीरे-धीरे समय बीतता गया लज्जा राम महाराज वृद्धावस्था की ओर बढने लगे व अनेकों शिष्य ्रलज्जाराम महाराज की सेवा में लगे हुए थे। लज्जाराम महाराज ने समस्त संस्थाओं के संचालन के लिए अपने शिष्या में उत्तराधिकारी का चयन करना था जो कि बहुत ही कठिन कार्य था। सतकुंभा आश्रम का कुंदनलाल (बाबा सीताराम) संभाल रहे थे। सफीदों, नगरा, बडोत एवं हरिद्वार को हेतराम तथा कांशीराम संभाल रहे थे। एक अक्टुबर 1927 को लज्जा राम महाराज ने एक वसीयत पंजीकृत करवाई, जिसमें सभी संस्थाओं के मुख्य महंत रामचन्द्र को नियुक्त किया गया। रामचन्द्र ने अपने सभी गुरु भाईयों के साथ मिलकर समस्त संस्थाओं का सफल संचालन किया। रामचन्द्र महाराज के विषय में एक बात प्रसिद्ध थी कि वे मृत आत्मा से भी कुुछ क्षण का संवाद करने में सक्षम थे, जिस कारण बहुत से लोगों को लाभ पहुंचा और उनकी त्याग तपस्या पूरे क्षेत्र में कीर्ति कौमुदी की तरह फैली हुई थी। महाराज जी ने अपना पूरा जीवन बहुत ही सादगी से व्यतीत किया। 10 जून 1968 को आत्म स्वरुप को अपना उत्तराधिकारी बनाकर इस संसार से विदा हो गए। ऐसे संत महापुरुषों को हम सत्-सत् नमन करते है।