सिद्धपीठ तीर्थ सतकुंभा धाम : कई लोग अन्न, वस्त्र पुस्तक तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं का दान दक्षिणा देकर द्रव्य यज्ञ करते हैं। कई मनुष्य परमात्मा की प्राप्ति के लिए व्रत, उपासना आदि से कष्ट सहन कर तपो यज्ञ करते हैं। कुछ जन यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि-अष्टांग योग से योग यज्ञ करते हैं। कतिपय मनस्वी शास्त्रों के चिन्तन पठन-पाठन से ज्ञानयज्ञ करते हैं। ऐसे सत्य, अहिंसा, सदाचार आदि व्रत धारण करने वाले पुरुषों की संज्ञा यति-प्रयत्नशील है। सबके लिए सब कुछ जानना, कहना और करना कठिन है। अपनी लग्न और सत प्रयत्नवश यति जन अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा से ऐसा कर्म करते हैं जो बहुजनसुखाय, बहुजनहिताय होता है ऐसी विभूतियों की गणना में स्वनाम धन्य बाबा सीताराम जी हुए। जिन्होंने अपना जीवन त्याग एवं तपस्या में लगाया, तपस्या के फलस्वरूप उनको वाकरिद्धि हुई। जिस कारण से सतकुंभा धाम के क्षेत्र में अनेकों परिवारों को यश एवं कीर्ति प्राप्त हुई। जिनके तप बाल एवं आशीर्वाद से आज भी सहस्त्रों परिवार पलवित-पुष्पित हैं। बाबा सीताराम का वास्तविक नाम कुन्दनलाल था तथा इनके पिता का नाम दामोदर गौड एवं माता का नाम अनुसुइया था, इनका जन्म विक्रमी संवत 1925, आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी (दशहरा) दिनांक 26-09-1868 वार शनिवार को यमुना तट पर आबाद तहसील सोनीपत में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए उज्जैन चले गए। जहां से शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त कर प्रकाण्ड विद्वान हो गए। शिक्षा पूर्ण करने के बाद अपने घर वापस आ गए। दूर-दूर तक इनके शास्त्र ज्ञान की चर्चा होने लगी। भगवान भक्ति में लीन होने के कारण इन्होंने संतवृत्ति का पालन करने का संकल्प लिया था तीर्थ पिण्डारा पर आ गए और अपनी भावना को आदिगुरु श्री लज्जाराम जी महाराज को बताया श्री लज्जा राम जी महाराज ने इन्हें वर्ष 1893 में बसन्त पंचमी को अपना शिष्य बनाते हुए दीक्षा प्रदान की और इन्हें तीर्थ सतकुम्भा धाम की देखरेख एवं प्रबन्ध व्यवस्था के लिए भेज दिया और आदेश दिया कि अपनी त्याग तपस्या से अपने जीवन को सफल बनाओ। कुन्दनलाल ने कई गायत्री पुरश्चरण किए एवं रामचरितमानस के सहस्त्रों पाठ से सीताराम की धुन जागृत कर ली। इसलिए श्रद्धालु इन्हें सीताराम के नाम से जानने लगे। अनेकों धार्मिक अनुष्ठानों एवं गुरु की कृपा से बाबा सीताराम को वाक् सिद्धि प्राप्त हुई, जिस कारण से भक्तजनों की आस्था बढ़ती चली गई। इन्होंने अपने जीवन को बहुत ही आध्यात्मिक व अलौकिक भाव में जिया और स्वयं में इच्छा मृत्यु प्राप्त की। सन 1950 के लगभग बाबा सीताराम ने अपनी मृत्यु के लिए दिन तिथि एवं स्थान स्वयं चयन किया। जिस नीम के नीचे इनको मुखाग्नि दी उस नीम का एक पत्ता भी प्रभावित नहीं हुआ, सैकड़ों लोगों की उपस्थिती में इच्छा मृत्यु प्राप्त करके वैकुण्ठ धाम चले गए, वहां पर बाबा सीताराम के नाम से समाधि बना दी गई। जिसकी पूजा-अर्चना श्रद्धालु नियमित रूप से आज भी करते हैं। आस-पास के सभी गांवों के लोग बाबा सीताराम की समाधि पर पूर्ण आस्था रखते हैं अपनी मन्नत मांगते हैं। परमात्मा उनकी इच्छा को पूर्ण करता है। धार्मिक आस्था का यह संगम हमेशा यूं ही चलता रहेगा और सीताराम जैसे संत इस भूमि पर जन्म लेते रहेेंगे।
बाबा सीता राम जी महाराज की आरती
तीर्थ सतकुंभा धाम की, बाबा सीताराम की। गावें हम सब आरती गावें हम सब आरती।। बाबा जी की महिमा न्यारी, किस ढंग से बखान करूं। हाथ कमण्डल गल में माला, भक्ति से में ध्यान करू। बाबा के गुणगान की, धर्म, कर्म और ज्ञान की।। सप्त ऋषियों ने करी तपस्या धर्म कर्म का ज्ञान हुआ। सतकुम्भा के तीर्थ धाम का सारे जग में ध्यान हुआ। चुणकट जी के ज्ञान की सप्तऋषि के ज्ञान की।। तन मन तुझ पर वारु बाबा तेरे धाम पे आऊंगा। फूलों की माला और ध्वजा दर तेरे पर फहराऊंगा। परम पिता के निधान की सर्व शक्तिमान की।। जो कोई सतकुम्भा आवे मन अपने न समझावें खाली हाथ कभी न जावे देख लियो चाहे अजमाके भक्तों के भगवान की शंकर के गुणगान की । गुरु लज्जा राम के शिष्य सीताराम के नाम की गंगा है। मन की आशा होवे पूरी जो मन चंगा है। दीपक ज्योति के ज्ञान की बाबा सीताराम की।। तीर्थ सतकम्भा धाम की, बाबा सीताराम की। गावें हम सब आरती गावें हम सब आरती।।