परम यशस्वी श्री ब्रह्मचारी महाराज का जन्म सफीदों में 1848 में एक तपस्वी सुदामा ब्राह्मण के यहां हुआ। आपकी पुण्यात्मा माता का नाम अन्नपूर्णा था। आप शैशवकाल से ही वैराग्य प्रवृत्ति के थे, आपका शरीर योगियों जैसा था। बचपन में ही आपके पिता इस असार संसार को छोड़ शात हो गये। आप अपनी माता की निगरानी में पले। खैर! आपकी माता चाहती थी कि मैं अपने पुत्र को गृहस्थी के रुप में देखें, परन्तु आपने अपनी माता को सन्तुष्ट कर परहित कार्य साधना के लिए गृह त्याग कर दिया। प्रसिद्ध सतकुंभा पर स्वामी श्रीविमला नन्द जी महाराज से दीक्षा ग्रहण की एवं प्राचीन गुफा में भगवत भक्ति एवं आराधना प्रारम्भ कर दी। उसके बाद सन् 1886 में पुण्यभूमि पाण्डु-पिण्डारा तीर्थ स्थान पर आ गए और एक छोटी सी पर्णकुटी बनाकर रहने लगे। आपकी माता जी भी यहीं आ गई। आप अपनी धुन में रहने लगे। आयु पर्यन्त अखंड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया। ब्रह्ममुर्हुत में रात्रि के 4 बजे उठकर स्नान सन्ध्या से निवृत हो मध्याह्नकाल तक गायत्रीमंत्र का जाप करते थे। आपने कई गायत्री के पुरश्चरण किये होंगे। इसी हेतु भगवती गायत्री का तेज:पुज्ज आपके भौतिक शरीर में प्रकाशित होने लगा। आपको वाक् सिद्धि प्राप्त हो गई-मन्त्रौषधितप: समाधिजा:सिद्धय:।।
आपके तपोबल से दूर-दूर के व्यक्ति प्रभावित होने लगे। महाराज श्री की कुटिया के आगे अनेक मोटरकार, तांगे बालों का तांता लगा रहता था, जिनके शुभ आशीर्वाद से अनेकों परिवार में सुख-समृद्धि की वृद्धि हुई, जिनके परिवार आजतक आश्रम परिवार से जुड़े हुए है। एक बार महाराजा जीन्द पिण्डारा तीर्थ पर मछलियों का शिकार खेलने पधारे। महाराजश्री ने राजा साहब से अनुरोध किया कि आप यहां इस पुण्यतीर्थ में मच्छलियों का शिकार न करें। राजा साहब महाराज के तपोबल के आगे झुक गए और वापिस जींद चले गए और भविष्य में आदेश दिया कि तीर्थ पिण्डारा पर कोई भी व्यक्ति मछली नहीं पकेडग़ा। महाराजश्री के उपदेश से इस तीर्थ में शौचादिक क्रिया एवं मलीन वस्त्रों को तीर्थ पर नहीं धोया जाता था न रजोधर्मावस्था में कोई स्त्री स्नान व रजो वस्त्र प्रक्षालन करने आती थी, जिस परम्परा का निर्वाह आज भी हो रहा है। महाराष्ट्र ने तीर्थ तट पर एक डेरा बनवाया जिसे डेरा तीर्थ पिण्डारा कहते थे, जो आज श्री लज्जा राम आश्रम के नाम से समस्त भारतवर्ष में जाना जाता है, जहां अनेक यात्री आराम से ठहरते हैं महाराष्ट्र ने एक विशाल कुआ बनवाया, गोशाला की स्थापना की जिसमें काफी गायों का पालन पोषण होता रहा। अन्नक्षेत्र की स्थापना की; जो आज तक उदार जनता के सहयोग से चल रहा है। जिसमें अनेक साधु-सन्त गरीब दोनों समय भोजन करते हैं। आपने गांव राजा चक्कुवाबैन राजा की प्राचीन राजधानी राजा मानधाता के नाम से प्रचलित ऋषि का आश्रम था, वहां पर भी डेरा सतकुम्भा की स्थापना की, शिव मन्दिर बनवाया, जिसे आज सिद्ध पीठ तीर्थ सतकुम्भा धाम कहते हैं। आपके तपोबल से प्रभावित होकर छौक्कर परिवार उल्हासा ने डेरा तीर्थ सतकुंभा को 50 बिघा भूमि प्रदान की। जिसकी आय से आश्रम चल रहा आपने सफीदों, नगूरा, धनाना, कलौदा, सालवन आदि में कुछ ऋषि कुटियां बनवाई जो आपके सत् सनातन संस्था को प्रकाशित करती है। आपकी भिक्षा पिण्डारा निवासी एक वेदपाठी रामप्रसाद ब्राहमण के यहां से आती थी। अन्नक्षेत्र का अन्न आपने कभी अपने व्यवहार में नहीं लिया। भिक्षा वृत्ति से ही उदरपूर्ति की। आपकी वाक सिद्धि से अनेकों भयंकर रोग ग्रस्त रोगी निरोग हो गए। अनेकों गृहस्थियों के घर सन्तान वेल पल्वित पुष्पित हुई। पिण्डारा निवासी यादव कुलदीपक- श्री बूंगामल, रिछपाल आदि का परिवार विख्यात है। जिसके फलस्वरूप सन 1904 में गांव पिण्डारा में बाग लगाकर के महाराष्ट्र को प्रदान किया, जो आज भी सुशोभित है। महाराष्ट्र के आशीर्वाद से छोटी घिलावड़ जिला रोहतक निवासी व्याकरणाचार्य कथा वाचस्पति स्वर्गीय पं श्री मनसा राम जी शास्त्री सन् 1919 से लेकर बहुत समय तक आपके सान्निध्य में विद्यालय में अवैतनिक रूप से पढ़ाते रहे तथा महाभारत की मनोहर कथा भी सुनाते रहें। सन् 1903 में ईगराह ग्राम निवासी श्री रामगोपाल जी ने महाराजश्री की प्रेरणा से प्रभावित होकर तीर्थ पर धर्मशाला एवं घाट बनवाए। बिटाना ग्राम निवासी श्री भगवान दास महाजन महाराष्ट्र को अपनी सर्वस्व सम्पत्ति प्रदान की, जिसकी सम्पत्ति से समस्त डेरा सम्पत्तियों को विकसित किया गया ऐसे श्रेष्ठ पुरुष धन्यवाद के पात्र तथा पुण्य के भागी हैं। आपकी स्वर्णवद् देदीप्यमान भव्य स्थूल मूर्ति को देख धर्म पुरुष धर्माचारी बन जाते थे। आपके अनेक नगरों में अनेक शिष्य हैं जो अब तक महाभारत के स्मारकों की धनादि द्वारा देखरेख कर सहायता कर रहे हैं। उन्हें धन्य है। महाराजश्री ने अपनी युवा अवस्था में जप, तप किया तथा धर्मशाला, अन्नक्षेत्र, पाठशाला आदि बनवाई। बाग भी लगवाए। आप तीर्थ के जल के ऊपर पदमासन लगा लेट जाते थे, यह योग क्रिया थी। प्रतिदिन शाम को तीर्थ परिक्रमा करते थे। परिक्रमा पर बन्दर आपके कन्धों पर बैठकर चने, गुड़ प्रसाद खाते थे पशु-पक्षियों में बैर-भाव नहीं था। आपका पीतल का कमण्डल से एक बार माता प्रसाद बांटते हुए कभी समाप्त नहीं होता था, यह थी योग सिद्धि। सतयुग के समान पिण्डारा ग्राम तीर्थ वासियों का जीवन था। आप अपने पीछे श्री रामचन्द्र जी ब्रह्मचारी को दीक्षा दे सन् 1928 में इस पांच भौतिक संसार को छोड़ पांच तत्वों में लीन हो गए। आपकी सब जाति वर्ग पर समान दृष्टि थी। किसी से आपको भेदभाव नहीं था। आपकी परोपकार भावना समस्त धार्मिक जनता के हृदय पटल पर अमर है। कवि ने सत्य कहा है :-
परोपकाराय फलन्ति वृक्षा:, परोपकाराय वहन्ति नद्य: । परोपकाराय फलन्ति साधव: परोपकाराय सतां विभूतय:।।