सोनीपत जिले के गांव मियाना खेडी गुज्जर का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। आज से करीब 300 ईसा पूर्व मध्यकाल में यह स्थान स्वर्ण युग के रूप में जाना जाता था। उस दौरान सोनीपत और मियाना, खिज्जरपुर अहिर, जलालाबाद, बिलन्दपुर, खेडी गुज्जर आदि गांव बहुत बड़े नगर होते थे, उपरोक्त सभी गांवों को मिलाकर सम्राट की राजधानी यहां पर थी। उस दौरान इस गांव के पास से यमुना नदी बहती थी। राजा चकवा बैन मान्धाता राजकोष से कोई भी खर्च न लेकर अपने परिवार का खर्च रस्सी बनाकर व खेतों में स्वयं हल चलाकर करता था, उनकी रानी बिंदुमति भी अपने परिवार के लिए पीने का पानी स्वयं ही भरकर लाती थी। राजा का इतना प्रताप था कि धर्म की वजह से उसके नाम का चक्र आकाश में चलता था पृथ्वी के सभी राजा चकवा बैन को वार्षिक कर के रूप में सोना भेंट करते थे, जिनमें लंका का राजा रावण भी शामिल था। यह स्थान ऋषि-मुनियों तथा तपस्वियों का स्थान रहा है इस स्थान पर चुन्कट ऋषि ने घोर तपस्या की है। तपस्वी चुन्कट ऋषि का जन्म 26वें सतयुग में माता ईश्वरी एवं पिता ज्ञानेश्वर के घर में पिलखुआ नामक स्थान पर हुआ था। चुन्कट ऋषि का नाम बचपन में श्रीकांत था। जिन्होंने गुरु के रूप में महर्षि अंगिरा से आलौकिक ज्ञान प्राप्त किया, चुन्कट ऋषि की वजह से ही चकवा बैन की सम्पूर्ण सेना एवं राजधानी का सर्वनाश हुआ। बाद में राजा चकवा बैन महर्षि चुन्कट से क्षमा याचना कर हिमालय पर्वत पर घोर तपस्या करने के लिए चले गए। राजा चकवा बैन के पतन के बाद यह स्थान निर्जीव हो गया। आठवीं व दसवीं सदी में यहां सुन्दर भवनों का निर्माण किया गया। यहां सप्त ऋषियों ने इस स्थान पर घोर तप किया. उस दौरान सप्त ऋषियों ने सात कुएं खोद कर यहां एक तालाब स्थापित किया, जिसमें भारत के 67 तीर्थों का जल लाकर एकत्रित किया गया। इस तीर्थ में सात कुएं होने के कारण यह शतकुंभा 68वां तीर्थ कहलाया, जो आज भी देखा जा सकता है। इस तीर्थ के विषय में प्राचीन मान्यता है कि जो भी श्रद्धालू 11 अमावस्या पूर्णिमा रविवार को स्नान करता है तो उसकी हर मनोकामना पूरी होती है। इस तीर्थ का जल प्राचीन काल से लेकर अब तक समाप्त नहीं हुआ है। इस प्राचीन गांव मियाना खेडी गुज्जर में ऊंचे टीले पर की गई खुदाई के दौरान गुज्जर प्रतिहार कालीन 16 स्तंभ प्राप्त हुए है, तीर्थ शतकुंभा मंदिर के पीछे लगभग 45 फुट गहरी कुआंनुुमा सुरंग है, प्राचीन शिव मंदिर के उत्तर पश्चिम में अलग आकार की प्राचीन ईटें व प्राचीन स्तंभ पुराने इतिहास के गवाह है। तीर्थ सतकुंभा एवं मन्दिर क्षेत्र 8 एकड़ भूमि में फैला हुआ है। धार्मिक आस्था को ध्यान में रखते हुए श्री पन्ना लाल पालीवाल परिवार ने 3 एकड़ भूमि तीर्थ शतकुम्भा को दान दी है लगभग 80 वर्ष पूर्व खेडी गुज्जर छोक्कर परिवार उल्हासा पुत्र हरनाम तीर्थ शतकुंभा महंत लज्जा राम महाराज को 10 एकड़ भूमि दान दी। जिसकी आमदनी से तीर्थ एवं मन्दिर के रखरखाव में सहयोग प्राप्त होता है। इस प्राचीन स्थान पर देश व विदेश से श्रद्धालु पहुंचकर दर्शन करते है और प्राचीन तालाब के जल को ग्रहण करते हैं। इस प्राचीन स्थान पर सन 1891 में लज्जा राम महाराज तीर्थ पिंडारा जीन्द वाले ने डेरा व मंदिर की स्थापना की एवं सप्त ऋषियों द्वारा स्थापित तीर्थ की महिमा को इस क्षेत्र में फैलाया। लज्जा राम के शिष्य बाबा सीता राम ने इस प्राचीन स्थल पर अनेकों वर्षो तक तप किया डेरे में ही बाबा सीता राम की समाधि बनी हुई है जिसकी पूजा अर्चना उपरोक्त सभी ग्रामवासी करते आ रहें है बाबा सीता राम के बाद इनके गुरुभाई रामचन्द्र महाराज ने डेरा तीर्थ शतकुम्भा गद्दी को संभाला सन 1968 में इनके स्वर्गवास के बाद इनके शिष्य आत्म स्वरूप महाराज ने तीर्थ स्थान की भवभूति को स्थापित रखा एवं इनके नेतृत्व में पंडित देई राम पुजारी ने जगह का विकास किया। अप्रैल 2004 में आत्मानन्द तीर्थ का हरिद्वार में स्वर्गवास हो गया, जिन्हें गंगाजी में जल समाधि दी गयी। वर्तमान में इनके शिष्य महंत राजेश स्वरूप महाराज डेरा तीर्थ शतकुंभा मन्दिर मियाना एवं सभी संस्थाओं तीर्थ पाण्डु-पिण्डारा कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, वृंदावन आदि संस्थाओं का कुशलतापूर्वक संचालन कर रहें है। श्रीमहन्त जी भारतीय पुरातत्व विभाग की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार और जिला सोनीपत की प्राचीन धरोहरों को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने वाली समिति के उदेश्यों अनुसार इस प्राचीन धरोहर तीर्थ शतकुम्भा को विश्व मानचित्र पर स्थापित करने के लिए प्रयासरत है। इस प्राचीन जगह पर सिद्ध गुफा है। प्राचीन शिव मंदिर, तीर्थ शतकुम्भा सरोवर, विष्णु लक्ष्मी मन्दिर, माँ शेरावाली का मन्दिर मौजूद है। यहां प्राचीन पेड त्रिवेणी पर धागा बांधकर मन्नत मांगते हैं। यहां वर्ष में दो बार मेले आयोजित होते हैं, पहला मेला कार्तिक पूर्णमासी व दूसरा मेला सावन के अन्तिम रविवार को आयोजित होता है। अब भी इस स्थान पर साधू-संत तपस्या कर रहे हैं।