कुम्भ माहात्म्य : कुम्भ भारतीय संस्कृति का महापर्व कहा गया है। इस पर्व पर स्नान, दान, ज्ञान मंथन के साथ ही अमृत प्राप्ति की बात भी कही जाती है। कुम्भ का बौद्धिक, पौराणिक, ज्योतिषीय सिद्धांत के साथ-साथ वैज्ञानिक आधार भी है। वेद भारतीय संस्कृति के आदि ग्रंथ है। कुम्भ का वर्णन वेदों में भी मिलता है। कुम्भ का महत्व न केवल भारत में वरन विश्व के अनेक देशों में है। इस तरह कुम्भ को वैश्विक संस्कृति का महापर्व कहा जाए, तो गलत न होगा। चँूकि इस दौरान दुनिया के अनेक देशों से लोग आते हैं और हमारी संस्कृति में रचने-बसने की कोशिश करते हैं, इसलिए कुम्भ का महत्त्व और बढ़ जाता है। कुम्भ पर्व प्र्रत्येक 12 वर्ष पर आता है। प्रत्येक 12 वर्ष पर आने वाले कुम्भ पर्व को अब शासनस्तर से महाकुंभ और इसके बीच 6 वर्ष पर आने वाले पर्व को अर्द्ध कुम्भ की संज्ञा दी गयी है। पुराणों में कुम्भ की अनेक कथाएं मिलती हैं। भारतीय जनमानस में तीन कथाओं का विशेष महत्व है। कुम्भ पर्व के संदर्भ में पुराणों मंत जो तीन अलग-अलग कथाएं मिलती हैं, उनमें प्रथम कथा के अनुसार कश्यप ऋषि का विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्रियों दिति और अदिति के साथ हुआ था। अदिति से देवों की उत्पति हुई तथा दिति से दैत्य पैदा हुआ। एक ही पिता की सन्तान होने के कारण दोनों ने एक बार संकल्प लिया कि वे समुद्र में छिपी हुई बहुत सी विभूतियों एवं संपत्तियों को प्राप्त कर उसका उपभोग करें। इस प्रकार समुद्र-मंथन एक मात्र उपाय था। समुद्र मंथनोपरान्त चैदह रत्न प्राप्त हुए जिनमें से एक अमृत कलश भी था। इस अमृतकलश को प्राप्त करने के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच युद्ध छिड़ गया, क्योंकि उसे पीकर दोनों अमरत्व की प्राप्ति करना चाह रहे थे। स्थिति बिगड़ते देख देवराज इंद्र ने अपने पुत्र जयंत को संकेत किया और जयंत अमृत कलश लेकर भाग चला। इस पर दैत्यों ने उसका पीछा किया। पीछा करने पर देवताओं और दैत्यों के मध्य 12 दिनों तक भयंकर संघर्ष हुआ। संघर्ष के दौरान अमृत कुम्भ को सुरक्षित रखने में बृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा ने बड़ी सहायता की। बृहस्पति ने दैत्यों के हाथों में जाने से कुम्भ को बचाया। सूर्य ने कुम्भ की फूटने से रक्षा की और चन्द्रमा ने अमृत छलकने नहीं दिया। फिर भी, संग्राम के दौरान मची उथल-पुथल से अमृत कुम्भ से चार बूंदे छलक ही गयी। ये अलग-अलग चार स्थानों पर गिरी। इनमें से एक गंगा तट हरिद्वार में, दूसरी त्रिवेणी संगम प्रयागराज में, तीसरी क्षिप्रा तट उज्जैन में और चैथी गोदावरी तट नासिक में। इस प्रकार इन चारों स्थानों पर अमृत-प्राप्ति की कामना से कुम्भ पर्व मनाया जाने लगा। दूसरी कथा के अनुसार अपने क्रोध के लिए विख्यात महर्षि दुर्वासा ने किसी बात पर प्रसन्न होकर देवराज इंद्र को एक दिव्य माला प्रदान की, किन्तु अपने घमण्ड में चूर होकर इन्द्र ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर रख दिया। ऐरावत ने माला लेकर उसे पैरों तले रौंद डाला। यह देखकर महर्षि दुर्वाशा ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध में आकर इन्द्र को शाप दे दिया। दुर्वाशा के शाप से सारे संसार में हाहाकार मच गया। रक्षा के लिए देवताओं और दैत्यों ने मिलकर समुद्र-मंथन किया, जिसमें से अमृत कुम्भ निकला, किन्तु यह नागलोक में था। अत: इसे लेने के लिए पक्षीराज गरूड़ को जाना पड़ा। नागलोक से अमृत घट लेकर गरूड़ को वापस आते समय हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक इन चार स्थानों पर कुम्भ को रखना पड़ा और इसी कारण ये चार स्थान हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक कुम्भस्थल के नाम से विख्यात हो गये। तीसरी कथा यह है कि एक बार प्रजापति कश्यप की दो पत्नियों-विनिता और कद्रू के बीच इस बात पर विवाद हो गया कि सूर्य के साथ के अश्व काले हैं या सफेद। विवाद बढऩे पर दोनों के बीच शर्त यह तय हुई कि जो हार जायेगी वह दासी बनेगी। रानी कद्रू ने अपने पुत्र नागराज वासुकि की सहायता से अश्वों के श्वेत रंग को काला कर दिया, जिससे विनिता की हार हुई। अंतत: विनिता ने कद्रू से प्रार्थना की कि वह उसे दासीत्व से मुक्त कर दे। कद्रू ने पुन: शर्त रखी कि यदि वे नागलोक में रखे अमृत घट को उसे लाकर दे दे तो दासीत्व से मुक्त हो सकती है। विनिता ने अपने पुत्र गरूड़ को इस कार्य में लगा दिया। गरूड़ जब अमृत घट लेकर आ रहे थे तो रास्ते में इन्द्र ने उन पर आक्रमण कर दिया। संघर्ष के कारण घट से अमृत की कुछ बूंदें छलककर चार अलग-अलग स्थान पर गिरीं और उन्हीं स्थानों पर कुम्भ पर्व होने लगा।
कुम्भ की कथाओं के अनुसार देवताओं और दैत्यों में बारह दिनों तक जो संघर्ष चला था, उस दौरान अमृत कुम्भ से अमृत की जो बंूदें छलकी थी और जिन स्थानों पर गिरी थीं, वहीं-वहीं पर कुम्भ मेला लगता है, क्योंकि देवों के इन बारह दिनों को बारह मानवीय वर्षो के बराबर माना गया है, इसलिए कुम्भ पर्व का आयोजन बारह वर्षो पर होता है। जिस दिन अमृत कुम्भ गिरने वाली राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग हो उस समय पृथ्वी पर कुम्भ होता है। तात्पर्य यह है कि राशि विशेष में सूर्य और चंद्रमा के स्थित होने पर उक्त चारों स्थानों पर शुभ प्रभाव के रूप में अमृत वर्षा होती है और यही वर्षा श्रद्धालुओं के लिए पुण्यदायी मानी गयी है। इस प्रकार से वृष के गुरु में प्रयागराज, कुम्भ के गुरु में हरिद्वार, तुला के गुरु में उज्जैन और कर्क के गुरु में नासिक का कुम्भ होता है। सूर्य की स्थिति के अनुसार कुम्भ पर्व की तिथियां निश्चित होती हैं। मकर के सूर्य में प्रयागराज, मेष के सूर्य में हरिद्वार, तुला के सूर्य में उज्जैन और कर्क के सूर्य में नासिक का कुम्भ पर्व पड़ता है। अथर्ववेद के अनुसार मनुष्य को सर्व सुख देने वाला कुम्भ प्रदान किया गया था। कुम्भ में स्नान पर्व का भी अपना महत्त्व और मुहुर्त होता है। संक्रान्ति के पूर्व और बाद की सोलह घडिय़ों में पुण्यकाल माना गया है। मुहुर्त तिथि आधी रात से पहले हो तो पहले दिन तीसरे प्रहर में पुण्यकाल बताया गया है और यदि मुहुर्त तिथि आधी रात के बाद हो तो पुण्यकाल प्रात:काल माना जाता है। इसके अलावा मकर संक्रान्ति का पुण्यकाल चालीस घड़ी, कर्क संक्रान्ति का पुण्यकाल तीस घड़ी और तुला एवं मेष का संक्रान्ति का पुण्यकाल बीस-बीस घड़ी पहले और बाद में बताया गया है।