हमारे समाज में एक व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करने के बहुत से कारक होते हैं। जिसमें उसके बचपन से लेकर बाकी जिंदगी तक वे कारक उसे प्रभावित करते रहते हैं और आगे भी समाज में विभिन्न वर्गों को प्रभावित करने का काम करते हैं। इस कड़ी में अध्यापक और माता-पिता की भूमिका बहुत अहम होती है। व्यक्ति जब बच्चा होता है तो उसका सारा पालन पोषण व व्यवहार परिवर्तन अर्थात भाषा के ऊपर पकड़ परिवार से ही बनती है। स्कूल जाने से पूर्व बच्चा अपने परिवार से बहुत कुछ सीख जाता है उसके परिवार की अच्छी या बुरी छाया उस पर पूरा प्रभाव डालती है, यह बात विज्ञान भी बताती है। परंतु यदि अध्यापक की बात करें तो बच्चे छोटी उम्र में ही अध्यापकों के संपर्क में आ जाते हैं, जिससे वह अध्यापकों की बात को ज्यादा गंभीरता से लेते हैं। इसलिए स्कूल जाने पर बच्चे पर अध्यापक का प्रभाव माता-पिता के प्रभाव से ज्यादा दिखने लग जाता है। फिर भी यही कहा जा सकता है कि दोनों के ही प्रभाव समाज में चलते रहते हैं। मित्र मंडली का प्रभाव बाद में आकर अपना असर दिखाना शुरू करता है। अध्यापक का व्यवहार बच्चे के व्यवहार पर प्रतिबिंब की तरह काम करता है। अध्यापक यदि नकल करवाने में बच्चे की मदद करते हैं या किसी दूसरे रास्तों से इसमें अपनी सहमति प्रदान करते हैं तो यह भी बच्चों के ऊपर प्रतिकूल प्रभाव डालने का काम करता है जो आगे जाकर समाज की दिशा को भी प्रभावित करता है। उसी प्रकार नशाखोरी की समस्या बचपन से ही शुरू हो जाती है। बच्चे अपने बड़ों या मित्र मंडली के प्रभाव से नशा करना भी सीख जाते हैं, जिसकी जानकारी सीधा या दूसरे तरीके से अध्यापकों को मिल जाती है या कई बार नहीं मिल पाती। यदि अध्यापक इस बारे में पहल करता है तो बच्चे विरोधाभाषी हो जाते हैं और परिवार भी बच्चों के ही साथ हो जाते हैं। इसलिए अध्यापक यहां अपने प्रभाव और शिक्षा से बच्चे की नशे की लगती हुई लत या लगी हुई लत को कम करने या छुड़ाने का काम कर सकते हैं। परिणाम से पहले यह भी जरूर सोचना चाहिए कि प्रयास से ही परिणाम सकारात्मक होते हैं। झूठ या सच का प्रभाव भी यहीं पर पड़ जाता है। अध्यापक बार-बार झूठ और सच के बारे में बच्चों को शिक्षित करते रहें और इसके परिणामों के बारे में भी अवगत कराते रहें तो यह भी एक प्रकार से शिक्षा का ही काम करती है। यह भी जरूरी नहीं है कि है यह सारा काम शिक्षक का ही है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अध्यापक राष्ट्र का निर्माता होता है और इस राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में अध्यापक की भूमिका बहुत ही अग्रणी होती है, परंतु साथ-साथ माता-पिता का प्रभाव भी कम मायने नहीं रखता। बच्चों के साथ फिल्में देखना हमारे समाज में अब एक आम बात है, परंतु फिल्मों में कुछ दृश्य ऐसे आते हैं, जो बच्चों के साथ बिल्कुल नहीं देखे जा सकते और साथ में बच्चों के मोबाइल प्रयोग पर भी माता-पिता का ध्यान रखा जाना अति आवश्यक होता है। कई बार माता-पिता की लापरवाही से दुष्परिणाम सामने आते हैं। माता-पिता या परिवार के लोगों के द्वारा बोला गया सच या झूठ और उनका व्यवहार बच्चे के ऊपर सीधा-सीधा प्रभाव डालता है। यदि पिता का प्रभाव नकारात्मक है और झूठ बोलने वाला है तो बच्चों पर इसका असर होने की संभावनाएं और ज्यादा प्रबल हो जाती हैं। माता-पिता सहायक प्रवृत्ति के होते हैं तो बच्चों के ऊपर इस बात का प्रभाव पडऩे की संभावना भी बहुत होती है। नशाखोरी और नैतिक शिक्षा बच्चे को अपने घर से मिलती है और स्कूल से भी मिलती है। हालांकि स्कूल की नैतिक शिक्षा और निगरानी स्कूल में मायने रखती है, परंतु घर की नैतिक शिक्षा और नशाखोरी पर अंकुश भी बच्चे पर पूरा प्रभाव डालते हैं। अध्यापक और माता-पिता दोनों के ही आदर्श या दूसरे प्रभाव बच्चे पर पढ़ते हैं, क्योंकि यह कहावत भी है कि बच्चे के ऊपर उसके परिवार के सदस्यों का प्रभाव कहीं ना कहीं जरूर पड़ता है। यह एक अनुवांशिक गुन या दोष भी हो सकता है और यह सामाजिक प्रभाव का भी असर होता है। वैसे तो एक मां-बाप के दो बच्चों पर अलग-अलग संस्कार और संस्कृति का प्रभाव आमतौर पर देखा गया है, परंतु सकारात्मकता के प्रयास सकारात्मक परिणाम लाएंगे, ऐसी संभावनाएं बहुत ज्यादा रहती है। समय का पालन और सत्यता यह दोनों ही गुण माता-पिता और अध्यापकों के पास होने चाहिए। इन्हीं गुणों का प्रभाव एक बालक को एक अच्छा इंसान बनाने में मदद करते हैं और यह राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा भी बनता है। बच्चा किस प्रोफेशन में जाएगा यह बाद का विषय है, परंतु उसे एक बेहतर इंसान बनाया जाना भी एक प्रकार की शिक्षा है और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया है। जातिगत भेदभाव और सांप्रदायिकता का गुण या दोष व्यक्ति को या एक बालक को अपने परिवार से मिलते हैं जो आगे जाकर समाज की दिशा को बदलने का काम करते हैं। हमारे देश में फैली सांप्रदायिकता और जातिगत भावना की जड़ें परिवार के बड़े सदस्यों के पास होती हैं, जो उन्हें समय-समय पर प्रेरित करती रहती हैं और उसे उसी प्रकार समाज में व्यवहार करने के लिए बाध्य करती रहती हैं। देश में दंगे या राष्ट्र निर्माण इसकी जड़ें स्कूल और घर दोनों में ही पाई जाती हैं।
विनोद रोहिल्ला, शिक्षक
लेखक पेशे से सरकारी शिक्षक हैं