भारत और चीन के संबंध कभी भी मधुर नहीं रहे। यदि उनमें मिठास लाने की कोशिश कभी की गई तो वह भी भारत की तरफ से की गई। चीन की तरफ से केवल दिखावा और कूटनीति का ही इस्तेमाल किया जाता रहा। भारत इस मामले में हमेशा रक्षात्मक रहा, जिसका समय-समय पर भारत को खामियाजा भी भुगतना पड़ा और अब भी भुगत रहा है। चीन जैसे देश के मामले में भारत की विदेश नीति का यह रवैया सदा भारत को नुकसान करता रहेगा। भारत को एक न एक दिन इस पर विचार करना ही पड़ेगा, क्योंकि दुनिया का कोई भी देश चीन को संतुष्ट नहीं कर सकता। साम्राज्यवाद या विस्तारवाद की चीन की नीति से दुनिया भली-भांति वाकिफ है। दूसरे की जमीन हड़पने और दूसरे के व्यापार पर काबू पाने के लिए चीन हमेशा कूटनीति का प्रयोग करता रहता है। इस प्रकार के देश के मामले में कूटनीति भी उसी प्रकार की होनी चाहिए। भारत का रक्षात्मक रवैया हमेशा भारत को पीछे धकेलता रहा है। आजादी के बाद से ही भारत हमेशा ही चीन के प्रति रक्षात्मक रहा है। नेहरू जी की नीति हिंदी चीनी भाई-भाई कभी भारत के पक्ष में नहीं रही। इस ने भारत को कमजोर किया। हालांकि पड़ोसी के साथ भाई-भाई की नीति पर चलना चाहिए, परंतु सतर्क भी रहना चाहिए। पड़ोसी व्यक्तियों और पड़ोसी देशों के मामले में अलग-अलग नीतियां काम करती हैं। भारत-तिब्बत के मामले में हमेशा चीन के प्रति रक्षात्मक रहा है और तिब्बत के लिए भारत ने कभी भी आवाज नहीं उठाई। उनकी निर्वाचित सरकार भारत में ही शरण लिए हुए हैं। भारत में कभी भी इस मामले में कूटनीतिक बढ़त हासिल नहीं की। इसी का नतीजा यह निकला कि 1962 में चीन ने भारत पर अचानक हमला किया और 37500 वर्ग किलोमीटर जमीन को हथिया लिया। जिसके लिए भारत कुछ भी नहीं कर सका। यह चीन की ही नीति है कि वह किसी भी पड़ोसी देश के साथ अपना सीमा निर्धारण नहीं करना चाहता अर्थात वह हमेशा ही आगे और उससे आगे दावा करता रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो कोई भी पड़ोसी देश, चीन की जमीन की भूख को शांत नहीं कर सकता। 1962 के 1 साल बाद 1963 में गिलगित बालटिस्तान के 5180 वर्ग किलोमीटर जमीन पर फिर से चीन ने कब्जा किया जो पाकिस्तान ने उससे जानबूझकर करवाया। भारत ने वैश्विक स्तर पर कभी इस बात को रखा ही नहीं। 1972 में भी जब इंदिरा गांधी की सरकार थी तब भी चीन ने हमारी जमीन हथिया ली थी, परंतु हमने यहां भी रक्षात्मक रवैया अपनाए रखा। इसी तरह बढ़ते हौंसले के कारण चीन ने गिलगित बालटिस्तान से होते हुए पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक सीपैक के नाम से एक रोड बनाना शुरू किया। यह भारत की सर जमीन से गुजरता है, क्योंकि गिलगित बालटिस्तान, भारत का एक हिस्सा है। जिस पर पाकिस्तान का नाजायज कब्जा है और चीन का वहां से सडक़ निकालना भारत की संप्रभुता को सीधी-सीधी चुनौती है। जिसका विरोध भारत ने उस स्तर पर नहीं किया। जिस स्तर पर उसे किया जाना चाहिए था। उस क्षेत्र में चीन और पाकिस्तान के निर्माण कार्य भारत की संप्रभुता के लिए और भारत की सुरक्षा के लिए आने वाले समय में बहुत बड़ा खतरा पैदा करेंगे। जब चीन हमारी जमीन के ऊपर से रोड निकाल रहा है, हमारी जमीन पर कब्जा कर रहा है, तब हम कैसे हिंदी चीनी भाई-भाई का नारा दे सकते हैं। इस प्रकार तो पूरे भारत के लिए ही खतरा पैदा हो जाएगा। जब आतंकवादियों की बात आती है तो वैश्विक आतंकवादियों को पनाह देने वाले पाकिस्तान के साथ हर कदम चीन खड़ा हो जाता है। भारत में आतंकवाद फैलाने वाले किसी भी ग्लोबल आतंकवादी को चीन संरक्षण देता है। यहां भी भारत कुछ नहीं करता। यदि भारत की कूटनीति अच्छी होती है तो भारत अपनी प्रतिक्रियाएं देकर या विश्व समुदाय से मिलकर इस मामले में अपनी अलग भूमिका निभा सकता था। कश्मीर के मामले में भी चीन कई बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बेवजह पाकिस्तान के लिए खड़ा हो जाता है। हालांकि उसे मुंह की खानी पड़ती है, परंतु वह हर मोड़ पर पाकिस्तान के साथ खड़ा हो जाता है, क्योंकि इसी से उसको भारत पर दबाव डालने में अपनी नीति नजर आती है। जबकि दूसरे पहलू में देखें तो भारत ताइवान को मान्यता नहीं देता और यह नहीं कहता कि ताइवान एक स्वतंत्र देश है। जिस पर चीन नाजायज कब्जा जमाना चाहता है। भारत-तिब्बत के मामले में अपनी आवाज नहीं उठाता। यदि भारत-ताइवान और तिब्बत के मामले में अपनी नीति में बदलाव लाए तो निश्चित तौर पर चीन को सीधा किया जा सकता है और दुनिया में बदनाम किया जा सकता है। जब चीन अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम को भी भारत का हिस्सा नहीं मानता तो फिर भारत ताइवान और तिब्बत को चीन का हिस्सा क्यों मानता है। यही रक्षात्मक रवैया भारत को सदा से पीछे धकेल जा रहा है। यदि भारत हर मामले को लाभ की दृष्टि से देखें तो भारत को हांगकांग के मामले में भी अपनी प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी और चीन की दुखती नस पर हाथ रख देना चाहिए था। आगे भी यदि भारत आक्रामक रवैया अपनाता है तो चीन को सीधा किया जा सकता है।
विनोद रोहिल्ला, शिक्षक
लेखक पेशे से सरकारी शिक्षक हैं।