सिद्धपीठ तीर्थ सतकुंभा धाम : सतकुम्भा माहात्मय
जीटी रोड़ स्थित कस्बे गन्नौर से मात्र छह किलोमीटर दूर बसा है गांव खेड़ी गुज्जर। यह गांव अपने अंदर अतीत की अनेक कहानियां व सभ्यता छिपाए हुए है। यहीं पर स्थित है ऐतिहासिक स्थल सतकुम्भा। यहां के लोगों का कहना है कि गॉव खेड़ी गुज्जर से पहले यहां म्याना कोटा, सतकुम्भा तथा जलालाबाद नगर बसे व उजड़े। सबसे उच्चें टीले पर बने हुए सतकुम्भा तीर्थ के मन्दिर में आग्नेय पत्थर से बने स्तंभ गुर्जर प्रतिहार कालीन है। लोग बताते है कि सोलह स्तंभ खुदाई से प्राप्त हुए थे। खेड़ी गुज्जर, बुलन्दपुर, अहीर माजरा, व अन्य पड़ोसी गंावों में ज्यादातर मकानों में जो लाखौरी ईटें लगी हैं, व यहीं से खोदकर निकाली गई हैं। इनमें से कुछ ईटें साचों से तैयार की हुई हैं। इन ईटों पर कलात्मक उभार भी हैं। यहां दो नवनिर्मित मन्दिरों के अलावा एक प्राचीन व ऐतिहासिक महत्व का तालाब, जमीन में दफन एक ऐतिहासिक नगर, और प्राचीन सुरगों के अवशेष मौजूद हैं चारों और कई किलोमीटर के दायरे में जमीन के अन्दर प्राचीन ईटों की दिवारों के साथ-साथ यहां के मन्दिर में अत्यन्त प्राचीन व जीर्ण- शीर्ण अवस्था की तीन मूर्तियां भी हैं।
यहां मन्दिर के साधु शंकर दास के अनुसार सतकुम्भा का प्राचीन नाम मानधाता म्याणा मौजा मियाना था। उनके अनुसार यहां बावन मील के इलाके में चकवा बैन का साम्राज्य था। इस जगह का नाम सतकुम्भा कैसे पड़ा और क्यों पड़ा ? इसके बारे में अनेक कथांए व किस्से प्रचलित हैं। इनमें किसे प्रमाणिक माना जाए और किसे नहीं यह एक गहन खोज का विषय है। लोकमत के अनुसार यहां सप्त ऋषि आये थे। उनके स्नानार्थ सात कुम्भों में यमुना नदी से जो जल लाया गया, उसी के आधार पर इस स्थान का नाम सतकुम्भा पड़ा एक दूसरी लोक मान्यता के अनुसार राजा मान्धाता की तीन बहनें थीं, जिनके नाम थे- सत्या या सत, खुम्भा और अम्बा। राजा उनसे बेहद प्रेम करता था। उनके स्नानार्थ जो तालाब बनवाया, उसी का नाम सतकुम्भा पड़ गया। एक अन्य धारणा के अनुसार अग्नि को आर्शीर्वाद मिला था कि पृथ्वी पर चली जाओ। वहां कलयुग में तुम्हारी पूजा होगी। इसी स्थान पर आकर सतकुम्भा आदि अग्नि की पुत्रियां रही थीं। अत: इसका नाम सतकुम्भा पड़ा।
एक अन्य धारणा के अनुसार उस समय यमुना नदी यहां तक फैली हुई थी। इस तर्क को सिद्ध करते हेतु ये लोग सतकुम्भा के कुछ दूर स्थित एक भारी वट वृक्ष के बारे में बताते हैं कि इस वृक्ष से मल्लाह अपनी नौकाएं बांधते थे। नदी के दूसरी ओर किसी दूसरे शहर में राजा की बहनें ब्याह रखी थी। नदी का फैलाव भाई बहनों के मिलन में बाधक था। अत: राजा ने घड़ानुमा सात तालाब खुदवाए थे, ताकि नदी का पानी इनमें समा सके-इसलिए इस स्थान का नाम सतकुंभा पड़ा गया। एक किंवदन्ति के अनुसार भारत में कुल साढ़े पांच सदी तक चकवा बैन वंश का शासन हुआ। इनमें प्रथम गौर जाट वंशीय राजा मान्धाता की राजधानी यमुना नदी के किनारे इसी स्थान पर थी।
पहले यमुना नदी यहां से बहती थी। राजा मान्धाता राजकोष से कुछ भी न लेकर अपने परिवार का खर्च रस्सी बांटकर उनकी बिक्री से होने वाली आमदनी से चलाते थे। उनकी रानी बिंदुमति भी अपने सतकर्मो के कारण सूत के धागे से मिट्टी के बगैर पके मटके से पानी भर लाती थी। राजा इतना न्याय प्रिय था कि कोई भी व्यक्ति यदि राजा की दुहाई दे देता था, तो उसे तुरंत न्याय मिलता था। राजा मान्धाता के विनाश की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। प्रचलित दंतकथाओं के अनुसार मरीचि, वशिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्तय, पुलह ओैर कतु सप्तऋषियों ने यहां तपस्या की थी। राजा मान्धाता भी यहां तपस्यार्थ रहता था। राजा होते हुए भी वह परिश्रम करके पेट भरता था। जमीन पर सोता था। रानी भी राजा के इस तप में शरीक थी। राजा – रानी के तप का इतना प्रभाव था कि रानी सूत के कच्चे धागे की डोरी बांधकर कच्चे घड़े से पानी भरती थी। एक दिन रानी के साधारण वस्त्रों को देखकर एक अन्य पनिहारिन ने रानी पर कटु व्यंग्य कसा। इस ताने से आहत होकर रानी ने राजकोष से सुदंर वस्त्र, अमुल्य आभूषण, रेशम की डोरी और सोने का घड़ा बनवाने की हठ की। राजा के लाख समझाने पर भी रानी जिद्द पर अडिग रही तो राजा ने पहली बार राजकोष से धन लेकर रानी के लिए उपरोक्त प्रसाधन बनवा दिये। रानी तो सज- धज कर जाने लगी, परंतु राजा उदास हो गया। राजा ने रानी से कहा -‘तुमने अहं के कारण हमारी लंबी तपस्या भंग कर दी है। यदि तुम फिर से पूर्ववत् कच्चे सूत और कच्चे घड़े से पानी भरकर दिखाओ तो जांनू । रानी ने प्रयास किया, किंतु असफल रही। यह देखकर राजा ने ऋषि मुनियों से सलाह ली तो उन्होंने कहा – ‘एक लाख गउ दान करो,सात तराजु सोना योग्य एवं विद्वान व्यक्तियों को दान करो।’ साथ में भारी यज्ञ करवाओ। तभी प्रायश्चित हो सकता है।
राजा ने तुरंत दूतों को आदेश दिया कि तपस्वी को भोजन कराया जाए, लकिन चुनक्कट ऋषि ने भोजन करने से इन्कार कर दिया। राज आज्ञा की अवेहलना सुनकर राजा ने अहंकार वश ऋषि से कहा या तो भोजन और दान ग्रहण करो या मेरे राज्य की सीमा से बाहर निकल जाओ। यदि ये दोंनों बाते मंजूर नहीं हैं तो मेरे साथ युद्ध करो, थोड़ा सा विचार करने से ऋषि ने राज्य छोडऩा मजूंर कर लिया। लोग अन्य कथा इस स्थान से जोडते हैं। वह संभवत: आठवीं सदी के उत्तरार्द्ध की है। उस समय यहां प्रतिहार शासकों का शासन था जो चक्रवर्ती न होते हुए भी चकवा बैन की उपाधि अपने नाम के पीछे लगाते थे। चकवा बैन की उपाधि को पहली बार धारण करने वाले प्रतिहार शासक का पौत्र सुल्तान था। जिसे नर सुल्तान भी कहा जाता है। सुल्तान कीचकगढ़ के बादशाह मैनपाल का पुत्र और चकुआबैन का पोता बताया जाता है। अनेकों वर्षोंकी आयु तक राजा मैनपाल के यहां कोई सन्तान नहीं हुई। फिर शिव की कठिन तपस्या के उपरांत राजा केे यहां पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उच्छश्रृंखलता के कारण बारह वर्ष की अवस्था में राजकुमार सुलतान को उनके पिता राजा मैनपाल द्वारा साढ़े बारह वर्ष का दसोटा दे दिया गया। दसोटे की अवधी में कुछ समय तक राजकुमार सुलतान इन्द्रगढ़ के राजा केशव कामध्वज के यहां धर्मपुत्र के रूप में रहा। इन्द्रगढ़ प्रवासकाल में ही स्वयंवर की शर्ते (सरवासर दानव का वध) पूरी करके सुल्तान ने केलागढ़ के राजा मधमान मघ की पुत्री कंवर निहालदेह से विवाह किया। परंतु पिता मैनपाल के शाप एवं धर्मभाई फूलकवंर की ईष्र्या के कारण वह नवपरिणीता रानी कंवर निहालदेह को इन्द्रगढ़ में छोड़ स्वयं नरवरगढ़ जा पहुंचा। वहां सुल्तान ने नल के पुत्र राजा ढोलकवंर एवं रानी मरवण के शासन के अंतर्गत नौकरी कर ली। नरवरगढ़ में लोक तापी त्रिपदेह दानव को मौत के घाट उतार अपनी बुद्धी, वीरता एवं कुशलता से नरवरगढ़ राज्य के सेनापति के पद पर पहुंच गया। यहां तक कि सुल्तान की प्रतिभा एवं शालीनता से प्रभावित होकर रानी ने उसे अपना धर्म भाई बना लिया। दूसरी ओर विरह के कारण इन्द्रगढ़ मेें कवंर निहालदेह की अवस्था अत्यंत शोचनीय हो गई। अत:विरहिणी निहालदेह के परवानों को लेकर सुलतान की खोज में भाट नरवरगढ़ जा पहुंचे। पहले भाट चलते फिरते थे। एक स्थान से दूसरे स्थान पर खबरें पहुंचाना, चोरी, डकैती, आदि इनके मुख्य कार्य रहे हैं। आज भी किसी स्थान के बसने – उजडऩे या गोत्रो के विकास सम्बन्धी सूचनाओं का जरिया भाट ही है। निहालदेह के मार्मिक प्रेम -पत्रों को सुन रानी मरवण को वास्तविक स्थिति का ज्ञान हुआ। उसने सुलतान को बहुत सा धन माल देकर इन्द्रगढ़ के लिए विदा किया। मार्ग में सुलतान की ज्ञानी चोर से मुठभेड़ हुई, जिसमें ज्ञानी चोर की करारी हार हुई। उसने सुलतान से पगड़ी बदल ली। भाग्य की विडंबना देखिए कि मंजिल तक पहुंचने तक निहालदेह चितासीन हो चुकी थी। सुलतान ने जलती चिता से मूच्र्छित निहालदेह को निकाला। शिव द्वारा अमृत छिडक़ने से सतवंती निहालदेह पुन: जीवित हुई और इस प्रकार निहालदेह और सुलतान का पुर्नमिलन हुआ। दूसरी ओर हांलाकि सरकार ने सतकुम्भा नामक इस स्थान को एक तीर्थ स्थल के रूप में विकसित करने के लिए यहां का आधुनिकरण व जिर्णोद्धार किया है। महिलाओं के नहाने के लिए अलग घाट बनाया है। इस तालाब के बारे में कहा जाता है कि यह सतयुग का है जिसका पानी कभी सुखता नहीं है। इस तालाब के बारे में एक मान्यता यह भी है कि इसमें स्नान करने से मनोकामना पूरी होती है। आज इसे पक्की ईंटों से शानदार चारदिवारी, महिलाओं के नहाने का घाट, व पुरूषों के नहाने का घाट अलग है। यहां पर कई सुरगें हैं। मंदिर के साथ ही एक छोटा सा मंदिर ओर है। इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि यहां राजा चकवा बैन का सिंहासन था। महात्मा सीता राम करीब 100 साल पहले यहां तपस्या के लिए आए थे। उनके दर्शन व सेवा के बाद यहां आने वाले हर दुखी आदमी की सभी व्याधियां स्वयं ही खत्म हो जाती थी। उनकी समाधि पर आज भी हर वर्ष दो मेलें लगते हैं। एक फागुन माह की एकादशी को व दूसरा कार्तिक माह की पूर्णमासी को। वर्तमान में यहां दो शिव मंदिर और एक संतोषी मां का मंदिर है। साथ में बाबा सीता राम की समाधि है। मंदिरों के एक ओर उंचे टीले पर एक पुरानी पानी रहित कुंई भी है। लोमतानुसार इसी कुंई पर रानी पानी भरती थी। यहां जमीन के नीचे एक तहखाना सा बना हुआ है जिसमें नीचे उतरने हेतु एक घुमावदार जीना सा है। कहते हैं यह राजा का कैदखाना था। कुछ लोग इसे किसी की समाधि बताते है। मंदिर के पास 12 एकड़ अपनी जमीन है। जिससे पुजारी का और अन्य खर्चे चलाए जाते हैं। आजकल यहां के पुजारी शंकरदास हैं। खेड़े के आस-पास की जमीन अहीरमाजरा, बुलंदपुर, नयाबांस तथा कुछ खेड़ी गांव के लोगों ने खरीद ली है। खुदाई का काम ठेके पर चल रहा है। सतखुंभा के आस -पास के इलाके को खेड़ा कहा जाता है। इस खेड़े की कभी भी योजनाबद्ध तरीके से खुदाई नहीं करवाई गई । यहीं से मिली लाल रेत पत्थर से बनी तीन नेत्रों एवं मूछों वाले महादेव शिव की प्रतिमा को हरियाणा पुरातत्व विभाग ने 16वीं सदी की माना है। जबकि यहीं से मिली षटानन कार्तिकेय की एक मूर्ति को 9वीं सदी की माना है।
सोनीपत जिले के गन्नौर कस्बे में स्थित सतकुम्भा देखने में भले ही एक साधारण सा तीर्थ लगे, लेकिन यह अपने में कई ऐतिहासिक तथ्यों को समेटे हुए है। हो सकता है उनके सामने आने से कई अनसुलझे सवाल अपने आप ही सुलझ जाए। ऐसा नहीं है कि यहां उत्खनन करने के प्रयास नहीं हुए है। हुए है, लेकिन प्रारम्भिक स्तर पर ही। समय समय पर यहां कई ऐसे साक्ष्य मिले हैं। जिसमें यहां एक समृद्ध राजसत्ता होने के संकेत मिले है। सतकुम्भा अभी एक तीर्थ स्थान के रुप में प्रचलित है। करीब 70 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले विशाल खंडहरों के एक हिस्से पर स्थित है सतकुम्भा। यहां एक तालाब और एक शिव मन्दिर। कहा जाता है कि यह मन्दिर 125 वर्ष पुराना है। यहां साल में तीन बार मेला लगता है। तालाब और मंदिर के जिर्णोद्वार पर लाखो रुपए खर्च किए गए है। लेकिन इन सब से महत्त्वपूर्ण है। खंडहरों का उत्खनन। कहा जाता है कि महाभारत काल से भी पहले इस स्थान पर किच्चागढ नामक शहर आबाद था। जो कि सम्राट चकवा वैन की राजधानी थी। सम्राट चकवा वैन बहुत ही कुशल योद्धा, न्याय प्रिय व हितेषी था। अपनी शक्तिशाली सेना के वुते उसने एक विशाल राज्य की स्थापना की थी। इस सफलता ने राजा को अंहकारी बना दिया। अपने को श्रेष्ठ मानकर उसने एक यज्ञ का आयोजन कर डाला, जिसमें दूर दूर से विद्वानों व ऋषियों को आमन्त्रित किया गया। इस महायज्ञ में चणकुट नाम के ऋषि भी आए, लेकिन भोज के अवसर पर ऋषि ने यह कहते हुए भोजन ग्रहण करने से इन्कार कर दिया कि घमंडी राजा का राज अंश ग्रहण नहीं किया जा सकता। इस पर सम्राट बोखला उठा। उसने ऋषि को राज्य सीमा से बाहर निकल जाने का आदेश दिया। तभी चणकुट ऋषि ने किच्चागढ से प्रस्थान कर दिया। ऋषि 6 महिने तक चलते रहे लेकिन राज्य की सीमा समाप्त नहीं हुई। थक हारकर ऋषि वापस राजधानी लौट आए। सम्राट चकवा बैन ने ऋषि के सामने दो शर्ते रखी या तो वे युद्ध करें या राज्य सीमा से बाहर चले जाए। ऋषि को युद्ध के लिए मजबुुर होना पड़ा। ऋषि ने कुशा (डाभ) के पुतले बनाए और दैत्य शक्ति के बल पर राजा का असंख्य सेना, प्रजा और राजधानी को ध्वस्त कर दिया। इस प्रकार एक शक्तिशाली राजसत्ता खण्डहरों में तब्दील हो गई। हालांकि इस कथाओं का कोई एतिहासिक आधार नहीं है। ऐसा नहीं है इस ऐेतिहासिक स्थल के बारे में पुरातत्व विभाग को कोई जानकारी नहीं है। यहां खुदाई भी हुई, लेकिन प्रारम्भिक स्तर पर ही। उसके बाद भी वह स्थल बिलकुल उपेक्षित हैै। स्थिती यह है कि आस पास के गांव वाले यहां की ईटों का इस्तेमाल मकान बनाने के लिए करते है। उन्हे कोई रोकने टोकने वाला नहीं है। ईंट निकालते समय कई लोगों को पत्थर के भारी स्तंभ, मूर्तियां, पीतल व तांबे के बर्तन आदि भी मिले है। पत्थरों के स्तभों पर कुछ लिखा भी है। जिसे पढने में अभी तक कामयाबी नहीं मिली है। देखना है इस स्थल की और सरकार नजर फेरती है और लोगों को कब तक एक समृद्ध राज्य की सच्चाई की जानकारी मिल पाती है।
……. तो फिर यहां भी होंगे बोधगया और अमरनाथ
उपेक्षित बोद्ध स्तूपों को विकसित कर अगर उसे एक सर्किट से जोड़ दिया जाए तो विश्व मानचित्र पर हरियाणा भी बोद्ध धर्मालंबियों के पर्यटन केन्द्र के रुप में उभर कर सामने आ सकता है- प्रकाश डाल रहें है संजीव राणा अमर बदहाल बौद्ध स्तुपों को विकसित करने व संवारने के प्रति राज्य सरकार गंभीर हो तो हरियाणा भी बौद्ध धर्मावलंबियों के एक पर्यटन स्थल के रुप में स्थापित हो सकता है। ऐसा होने से विहार के बोधगया और उत्तर प्रवेश के सारनाथ की तक यहां भी विदेशी पर्यटकों के मेले लगते रहेगें और सरकार का खजाना विदेशी मुद्रा से भरता रहेगा। पुरातत्व विभाग की उपेक्षा के चलते यहां के ऐतिहासिक बौद्ध स्तुप गुमनामी के अंधेरे से निकल नहीं पा रहें है। समय समय पर इसके जीर्णोद्धार के लिए छिट पुट प्रयास जरुर किए गए है। लेकिन विदेशी पर्यटकों को लुभाने के लिए पर्याप्त नहीें थे। आवश्यकता है एक ठोस कार्ययोजना व एक बेहतर प्रबन्धन की,जिससे राज्य को बौद्धधर्मालंबियों के एक प्रमुख केन्द्र के रुप में विकसित किया जा सके। हरियाणा में चार बौद्धस्तुप- असन्ध, कुरुक्षेत्र, अग्रोहा और चन्हेटी में है। इनमें से अग्रोहा स्तुप को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अपने सर्वेक्षण में लिया हुआ है, जबकि चन्हेटी स्तुप राज्य पुरातत्व विभाग के अधीन है।
सतकुम्भा तीर्थ पर खुदाई में निकली प्राचीन मूर्तियां
गांव खेड़ी गुज्जर स्थित सतकुम्भा तीर्थ धाम पर रविवार को खुदाई के दौरान प्राचीन मूर्तियां निकली। खुदाई के दौरान 6 मूर्तियां एवं दो शिलापट्ट निकले है। यह मूर्तियां युगल शिव पार्वती व कृष्ण राधा की है तथा बाकी मूर्तियों की पहचान नहीं हो पा रही है कि वह किस देवता की है। मूर्तियां निकलने का पता लगते ही गांव वालों के साथ ही तीर्थ पर स्नान करने पहुंचे श्रद्धालुओं की देखने के लिए भीड़ लग गई। मूर्तियों को तीसरी-चैथी शताब्दी का बताया जा रहा है। प्राचीन तीर्थ धाम सतकुम्भा में शनिवार को खुदाई के दौरान युगल शिव पार्वती एवं कृष्ण राधा सहित अन्य देवताओं की छह मूर्तियां निकली। इसके साथ ही दो शिलापट्ट भी खुदाई में निकले है। महन्त राजेश स्वरुप जी महाराज ने बताया कि धाम परिसर में गुरु सीताराम जी महाराज की समाधि बनी हुई है जो काफी जर्जर अवस्था में पहुंच चुकी है। समाधि का पुननिर्माण कराने के लिए समाधि स्थल की खुदाई कराई जा रही है। रविवार को दोपहर के समय खुदाई की जा रही थी तो अचानक ही एक मूर्ति निकली। उन्होनें बताया कि इन मूर्तियों में शिव-पार्वती व अन्य देवताओं की मूर्तियां है। देखने में लगता है कि यह मूर्तियां काफी प्राचीनकाल की है। मूर्तियां की बनावट देखने में वैसी ही है जैसी अजन्ता- ऐलोरा में मूर्तियां है। सतकुम्भा तीर्थ धाम सतयुग में राजा न्याध्या की राजधानी रह चूकी है।
पहले भी निकली मूर्तियां
सतकुम्भा तीर्थ पर पहले भी खुदाई के दौरान मूर्तियां निकल चूकी है। सभी मूर्तियों पुरातत्व विभाग की जांच के बाद कुरुक्षेत्र संग्रहालय में रखी गई है। महन्त राजेश स्वरुप ने बताया कि निकली मूर्तियों को भी कुरुक्षेत्र संग्रहालय में रखा जाएगा।
आप सभी भगतजन सिद्धपीठ तीर्थ सतकुम्भा धाम पर सप्त ऋषियों का सत्यापित किया हुए तीर्थ के दर्शन एक बार जरूर करे सतकुम्भा धाम अभी की मनोकामना पूर्ण करते ह आप जरूर सतकुम्भा की विजिट करे और परिवार सहित पहुचे फ़ोन करके आओ ताकि सतकुम्भा धाम पर आप स्वागत किया जाए 9729660835
सिद्धपीठ तीर्थ सतकुम्भा धाम की jai