नासिक जिले में शहर की पश्चिम दिशा में अठारह मील दूरी पर ‘ब्रह्मगिरी’ पर्वत है, जो सह्याद्री का एक हिस्सा है, उसकी तलहटी में बसा हुआ है ‘श्री क्षेत्र त्र्यंबकेश्वर’।
गौतमाश्रम
प्रयाग क्षेत्र के पास यज्ञयाग के लिए जमीन जोतते समय श्री ब्रह्मदेव को स्वर्ण की रत्नजडि़त संदूक मिली, जिसमें एक परम सुंदर रूपयौवना थी। इसे देख कर भगवान श्री ब्रह्मदेव चिंतित हुए कि, ‘क्या मेरी सृष्टि से बढक़र यह रूपयौवना सुंदर है? इसे अनुरूप पति कैसे मिलेगा?’ उसी समय आकाशवाणी हुई कि, हे ब्रह्म देव! तुम्हारी पर्वत द्वीप सहित पृथ्वी को तीन चक्कर लगाकर जो सर्वप्रथम आएगा, उसी को यह कन्या दे देना।’ श्री ब्रह्मदेव के प्रण के अनुसार श्री गौतम ऋषि मार्गक्रमण कर रहे थे। उसी समय मार्ग में एक कपिला धेनू के तीन चक्कर लगाकर वे वापस आए। उन्होंने श्री ब्रह्मदेव से कहा कि वे तीन पृथ्वी प्रदक्षिणा कर सर्वप्रथम आए हैं। उन्होंने विनती की कि, उनका विवाह यथाविधि भूकन्या के साथ हो जाए, तो ब्रह्मदेव ने आकाशवाणी के अनुसार उनका विवाह सम्पन्न करवा दिया। यज्ञयागादि कर्म पूर्ण करने के बाद गौतमऋषि ने सपत्निक अपने आश्रम में लौट जाने की अनुमति माँगी तो श्री ब्रह्मदेव ने कहा, ‘महामुनि’ भगवान श्री शंकर देवगण सहित श्री क्षेत्र त्र्यंबकेश्वर में वास कर रहे हैं। उसी ब्रह्मगिरी पर्वत पर आश्रम स्थापित कर तपस्या करें जिससे श्री त्र्यंबकेश्वर प्रसन्न होंगे। श्री ब्रह्मदेव की आज्ञा के अनुसार श्री गौतमऋषि क्षेत्र त्र्यंबकेश्वर में आश्रम बाँधकर रहने लगे। इसी कारण सभी देव ऋषि इस स्थान को ‘गौतमाश्रम’ कहने लगे।
त्रिसंध्या क्षेत्र
एक बार, श्वेत राजा ने नंदिकेश्वर से पूछा, ‘त्र्यंबकेश्वर क्षेत्र का नाम त्रिसंध्या क्षेत्र कैसे पड़ा?’ नंदिकेश्वर ने त्रिसंध्या क्षेेत्र के बारे में बताया, ‘राजा, यह सृष्टि जलमय थी। प्रकृति और पुरुष नागासन पर निद्रागस्त थे, जाग उठने पर उन्होंने श्री ब्रह्मदेव को आज्ञा की , ‘हे ब्रह्मदेव, फिर एक बार विश्व का निर्माण करो।’ भगवान श्री विष्णु की आज्ञा के अनुसार तीन बार सृष्टि निर्माण की कोशिश की गई पर मनचाही सृष्टि निर्माण न कर सके, इसलिए हर समय उसको नष्ट किया गया। श्री ब्रह्मदेव संशय में पड़ गये। मनोशांति के लिए वे श्री क्षेत्र त्र्यंबकेश्वर जाकर तपस्या करने लगे। उस समय श्री ब्रह्मदेव ने तीन कन्याओं को देखा-जिनका तेज देखकर उन्होंने पूछा, ‘तुम कौन हो? ‘हम कर्म की तीन कन्याएँ हैं। आपकी तपस्या से संतुष्ट होकर कर्म को आपके स्वाधीन करने आयी हैं।’ इन तीन कन्याओं की मदद से श्री ब्रह्मदेव ने सृष्टि निर्माण का कार्य किया। उसी समय से त्र्यंबकेश्वर क्षेत्र का ‘त्रिसंध्या क्षेत्र’ नामाभिधान हुआ।
श्री गंगा की उत्पत्ति एवं शिवजी की जटाओं में आगमन
बलीराजाने सौवें यज्ञ को आरंभ किया, उस समय इंद्रादि देवों के मन में डर था कि, बलीराजा इंद्रासन लेकर इंद्रपद हासिल कर लेगा। सब देवगण भगवान विष्णु से प्रार्थना करने लगे। श्री विष्णु वामन रूप धारण कर बलीराजा के यज्ञ मंडप में दाखिल हुए। बड़े-बड़े वैदिक, ऋषिमुनि, शुक्राचार्यादि दैत्य गुरूजन आदि को वादविवाद में हराया। वामन का अलौकिक तेज तथा बुद्धि चातुर्य देखकर बलीराजा ने उसे उच्चासन पर बिठाया और उसकी पूजा की। अपनी इच्छानुसार दान माँगने की विनती की। तब वामन ने तीन पग जमीन दान के रूप में माँगी। बलीराजा ने इस बात को स्वीकार किया और दान देने का संकल्प किया। वामन ने अपना विराट रूप धारण कर एक ही कदम में पूरी पृथ्वी व्याप्त की। दूसरे कदम में सत्यलोक तक का विश्व व्याप्त किया। फिर उसने पूछा, ‘अब तीसरा कदम कहाँ रखूँ?’
‘येन बद्धो बलीराजा दानवेन्द्रो महाबल:।’
इस कथन के अनुसार बलीराजा ने अपना सिर झुकाया और तीसरा कदम अपने सिर पर रखने की विनती की। बलीराजा का दान-दानृत्व देखकर वामन प्रसन्न हुए और भगवान श्री विष्णु के रूप में दर्शन देकर वर माँगने को कहा। भगवान श्री विष्णु को देखकर बलीराजा ने कहा, ‘आज से आप श्री लक्ष्मी सहित मेरे घर रहिये जिससे आपके नित्य दर्शन का लाभ मुझे होगा।’ भगवान श्री विष्णु ने दूसरा कदम सत्यलोक पर रखा, उसी समय शिवजी के दिये हुए पवित्र जल से श्री ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु के चरण कमलों पर अघ्र्य देकर पूजन किया। अघ्र्यादक भूमि पर पडक़र पाताल में न जाने के उद्देश्य से श्री शंकर ने अपनी जटाओं में यह अघ्र्य धारण किया। यही पवित्र जल है ‘गंगा’।
गंगाद्वार :
ब्रह्मगिरी पर्वत के बीचों-बीच गंगाद्वार है। गंगा के पास ही 108 शिवलिंग हैं। इनकी स्थापना गौतम ऋषि ने की थी। यहाँ गोरखनाथ गुफाएँ भी हैं। यहाँ श्री गोरखनाथ ने तपस्या करके सिद्धि प्राप्त की थी।
वराह कुंड :
पाताल में हिरण्याक्ष नामक एक दैत्य रहता था। उसने सब की नाकों में दम कर दिया था। उसका दमन करके के लिए भगवान विष्णु ने वराह का रूप लिया और उसको मार डाला। तत्पश्चात गंगाद्वार में वराह रूप में ही स्नान किया, इसलिये उसे वराह कुंड कहते हैं।
राममंदिर तथा रामकुंड लक्ष्मणकुंड
गंगाद्वार पर्वत के बीच में ही राम मंदिर है। वहाँ गूलर के पेड़ (औदुंबर वृक्ष) के तने से गंगा गोदावरी निकली है।
बिल्वतीर्थ : पंचतीर्थों में से यह एक तीर्थ माना जाता है। यह नील पर्वत की उत्तर दिशा में है।
गौतम तालाब : त्र्यंबकेश्वर नगरी की उत्तर दिशा में यह तालाब है।
श्री कुशावर्त तीर्थराज : यह एक प्रमुख तीर्थ माना जाता है। कुशावर्त तीर्थ में स्नान करने से मिलने वाले पुण्य की महानता का वर्णन श्री नामदेवने निम्नलिखित ओवियों में किया है:
वाचे म्हणता गंगा गंगा। सकल दोष जाती भंगा।
दृष्टी पडता ब्रह्मगिरी। त्यासी नाही यमपुरी।।
करिता कुशावर्ते स्नान। त्याचे कैलासी रहाणे।
नामा म्हणे प्रदेक्षिणा। त्याच्या पुण्या नाही गणना।।
श्री गंगा का नाम स्मरण करते ही सभी दोष नष्ट होते हैं। वे यमपुरी नहीं जाते जो ब्रह्मगिरी के दर्शन करते हैं। कुशावर्त में स्नान करने से कैलाश में स्थान प्राप्त होता है। परिक्रमा करने से अपार पुण्य की प्राप्ति होती है।
श्री त्र्यंबकेश्वर मंदिर
1755-1786 ई. के कालखंड में श्रीमान् नानासाहेब पेशवे ने त्र्यंबकेश्वर का हेमाडपंथी मंदिर बनाया। मंदिर की रचना यंत्राकार है। मंदिर पूर्वाभिमुख है तथा चारों तरफ पत्थर की दीवारें हैं। यह मंदिर पाँच गोपुरों का है। मंदिर के शिखरों पर पाँच सुवर्ण कलश हैं। ध्वजा पंचधातु की है। पक्षद्वार के गुंबद की बाहरी बाजु में खोदे हुए कमल बिल्कुल वास्तव लगते हैं। इन कारीगरों की कला आज के कारीगरों के लिए असंभव है। उन कलाकारों की तन्मयता तथा आत्मियता की सराहना आज भी हर दर्शक करता है।
नासिक : ऐतिहासिक परिचय
नासिक की संस्कृति पुरातन है। उस दृष्टि से आज के बड़े-बड़े शहरों की तुलना इससे नहीं हो सकती। एक समय ‘पऽनगर’ बाद में ‘त्रिकंटक’ उसके बाद ‘जनस्था’ नाम से यह शहर मशहूर था। नासिक के पास बंबई आग्रा रोड़ स्थित पांडव गुफाओं के शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि पांडव गुफाएँ दो ढाई हजार वर्ष पुरातन हैं। शिल्पकारी करते समय शिलालेखों में नासिक की तत्कालीन संस्कृति के उदाहरण खोदे गए हैं। क्रमांक बीस की गुफा में – ‘नाशिकानां धार्मिकं ग्रामस्थ दानम्’ लिखा हुआ है। नासिक श्री राम की भूमि है जहाँ 14 वर्ष तक वे वनवास में रहे। स्कंध पुराण में दी हुई जानकारी के अनुसार महामुनि कश्यप ऋषि की आज्ञा से श्री रामचंद्र ने अपने पिता का श्राद्ध नासिक में गोदावरी के तट पर किया था और मृत रिश्तेदारों की आत्मा को शांति प्रदान करने के हेतु आज भी भारत के विभिन्न स्थानों से लोग आते हैं और श्राद्धादि कर्म यहाँ करते हैं। श्री राम की तपोभूमि होने के कारण इस गोदावरी तट को महत्त्व प्राप्त हुआ है। गोदावरी तट पर पंचवटी घाट है, जिस पर यात्री स्नान करते हैं। हर बारह वर्ष के बाद यहां कुंभमेला लगता है। उस समय वैष्णवपंथी साधुजन यहाँ निवास करते हैं।
सूयेन्दु गुरु संयोग:, तद्राशौ यत्र वत्सरे।
सुधाकुम्भ प्लवे भूमो, कुम्भो भवति नान्यथा।।
अमृत कलश से बूदों के पतन के समय जिन-जिन राशियों में सूर्य, चन्द्र और गुरु की स्थिति रही उन्हीं राशियों में सूर्य,चन्द्र और गुरु के संयोग होने पर कुम्भ पर्व होता है, अन्यथा नहीं।
नासिक महाकुम्भ की स्नान तिथियां
श्रावण शुक्ल पूर्णिमा प्रथम शाही स्नान, भाद्रपद अमावस्या द्वितीय शाही स्नान, भाद्रपद शुक्ल द्वादशी, वामन द्वादशी तृतीय शाही स्नान