हमारा देश भारत विश्व की आत्मा कहलाता है और प्रयागराज भारत का प्राण कहा गया है। हमारे देश को जीवनदायी शक्तियाँ इसी धरती से मिलती रही है। जिस तरह से सनातन धर्म अनादि कहा जाता है, उसी प्रकार प्रयागराज की भी महिमा का कोई आदि अंत नहीं है। अरण्य और नदी संस्कृति के बीच जन्म लेकर ऋषियों-मुनियों की तपोभूमि के रूप में पंचतत्वों को पुष्पित-पल्लवित करने वाली प्रयागराज की धरती देश को हमेशा ऊर्जा देती रही है।
प्रकृष्टं सर्वयागेभ्य: प्रयागमिति गीयते।
दृष्ट्वा प्रकृष्टयागेभ्य: पुष्टेभ्यो दक्षिणादिभि:।
प्रयागमिति तन्नाम कृतं हरिहरादिभि:।।
उत्कृष्ट यज्ञ और दान दक्षिणा आदि से सम्पन्न स्थल देखकर भगवान विष्णु एवं भगवान शंकर आदि देवताओं ने इसका नाम प्रयागराज रख दिया, ऐसा उल्लेख कई पुराणों से मिलता है। तीर्थराज प्रयागराज एक ऐसा पावन स्थल है, जिसकी महिमा हमारे सभी धर्मग्रन्थों में वर्णित है। तीर्थराज प्रयागराज को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रदाता कहा गया है। यह सभी तीर्थो में श्रेष्ठ है-वह वर्णन ब्रह्मपुराण में प्राप्त होता है:
प्रकृष्टत्वात्प्रयागोऽसौ प्राधान्यात् राजशब्दवान्।
अपने प्रकृष्टत्व अर्थात् उत्कृष्टता के कारण यह ‘‘प्रयाग’’ है और प्रधानता के कारण ‘‘राज’’ शब्द से युक्त है।
प्रयागराज की महत्ता वेदों और पुराणों में सविस्तार बतायी गयी है। एक बार शेषनाग से ऋषियों ने भी यही प्रश्न किया था कि प्रयागराज को तीर्थराज क्यों कहा जाता है, जिस पर शेषनाग ने उत्तर दिया कि एक ऐसा अवसर आया जब सभी तीर्थों की श्रेष्ठता की तुलना की जाने लगी। उस समय भारत में समस्त तीर्थों को तुला के एक पलड़े पर रखा गया और प्रयागराज को दूसरे पलड़े पर, वहां भी प्रयागराज वाला पलड़ा भारी रहा। इस प्रकार प्रयागराज की प्रधानता सिद्ध हुई और इसे तीर्थों का राजा कहा जाने लगा। इस पावन क्षेत्र में दान, पुण्य, तपकर्म, यज्ञादि के साथ-साथ त्रिवेणी संगम का अतीव महत्व है। यह सम्पूर्ण विश्व का एक मात्र स्थान है, जहां पर तीन-तीन नदियां, अर्थात् गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती मिलती है और यहीं से अन्य नदियों का अस्तित्व समाप्त होकर आगे एक मात्र नदी गंगा का महत्व शेष रह जाता है। इस भूमि पर स्वयं ब्रह्मा जी ने यज्ञादि कार्य सम्पन्न किये। ऋषियों और देवताओं ने त्रिवेणी संगम में स्नान कर अपने आपको धन्य माना। मत्स्य पुराण के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने एक बार मार्कण्डेय जी से पूछा, ‘ऋषिवर यह बतायें कि प्रयागराज क्यों जाना चाहिए और वहां संगम-स्नान का क्या फल है।’ इस पर महर्षि मार्कण्डेय ने उन्हें बताया कि प्रयागराज के प्रतिष्ठानुसार से लेकर वासुकि के हृदयोपरिपर्यन्त कम्बल और अश्वतर दो भाग हैं और बहुमूलक नाग है। यही प्रजापति का क्षेत्र है, जो तीनों लोकों में विख्यात है। यहां पर स्नान करने वाले दिव्य लोक को प्राप्त करते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। पद्मपुराण कहता है कि यह यज्ञ भूमि है देवताओं द्वारा सम्मानित इस भूमि में यदि थोड़ा भी दान किया जाता है तो उसका अनंत फल प्राप्त होता है। प्रयागराज की श्रेष्ठता के सम्बंध में यह भी कहा गया है कि जिस प्रकार ग्रहों में सूर्य और नक्षत्रों में चन्द्रमा श्रेष्ठ होता है, उसी तरह तीथों में प्रयागराज सर्वोत्तम तीर्थ है-
ग्रहाणां च यथा सूर्यो नक्षत्राणां यथा शशी।
तीर्थानामुत्तमं तीर्थ प्रयागाख्यमनुत्तमम्।।
पद्मपुराण के ही अनुसार प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। इन नदियों के संगम में स्नान करने और गंगा जल पीने से मुक्ति मिलती है, इसमें किंचित भी संदेह नहीं है। इसी तरह स्ंकद पुराण, अग्नि पुराण, शिव पुराण, ब्रह्मापुराण, वामन पुराण, वृहन्नारदीय पुराण, मनुस्मृति, वाल्मीकीय रामायण, महाभारत, रघुवंश, महाकाव्य आदि में भी प्रयागराज की महत्ता का विस्तार से वर्णन किया गया है। वाल्मीकीय रामायण में कहा गया है कि श्रीराम अपने वनवास काल में जब ऋषि भारद्वाज से मिलने गये तो वार्तालाप में ऋषिवर ने कहा, ‘हे राम गंगा, यमुना के संगम का जो स्थान है, वह बहुत ही पवित्र है, आप वहां भी रह सकते है।’ श्री रामचरितमानस में तीर्थराज प्रयागराज की महता का वर्णन बहुत ही रोचक तरीके से और विस्तारपूर्वक किया गया है-
माघ मकरगत रवि जब होई। तीरथ पतिहिं आव सब कोई।।
देव-दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनी।।
पूजहिं माधव पद जल जाता। परसि अछैवट हरषहिं गाता।।
भारद्वाज आश्रम आति पावन। परम रम्य मुनिवर मन भावन।।
तहां होइ मुनि रिसय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथ राजा।।
माघ के महीने में त्रिवेणी संगम स्नान का यह रोचक प्रसंग कुम्भ के समय साकार होता है। माघ में साधु-संत प्रात:काल संगम स्नान करके, ईश्वर के विविध स्वरुपों और तत्वों की विस्तार से चर्चा करते हैं।